आशीष नंदी द्वारा पिछड़ों दलितों को “भ्रष्टाचार की ज़ड” कहे जाने को, प्रोफेसर सफ़दर इमाम कादरी ब्राह्मणवाद के षड्यंत्रकारी आक्रोश का बौद्धिक प्रतिरूपण मानते हैं.
शीर्ष समाजशास्त्री प्रोफेसर आशीष नंदी का जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के मंच से दिया गया बयान सम्पूर्ण देश में बहस का मुद्दा बन गया है.उन्हों ने देश में भ्रष्टाचार की जड़ तलाश करते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि पिछड़े और दलित समुदाय के लोग ज्यादा भ्रष्ट हैं.उन्होंने पश्चिम बंगाल का उदाहरण देते हुए कहा कि वहां साफ सुथरी राजव्यवस्था इस कारण है क्योंकि पिछले 100 वर्षों में वहां पिछड़े तथा दलित वर्ग के लोग सत्ता से दूर रखे जा सके.
प्रोफेसर आशीष नंदी इतने प्रबुद्ध विचारक हैं कि यह नहीं कहा जा सकता कि उनका बयान जुबान की फिसलन है या किसी तरंग में आ कर उन्होंने ये शब्द कहे. अपनी तथाकथित माफ़ी में उनहोंने जो सफाई दी तथा उनके सहयोगियों ने प्रेस सम्मलेन में जिस प्रकार मजबूती के साथ उनका साथ दिया, इस से देश के बोद्धिक समाज का ब्राह्मणवादी चेहरा और अधिक उजागर हो रहा है. सजे धजे ड्राइंग रूम में अंग्रेजी भाषा में पढ़कर तथा अंग्रेजी भाषा में लिख कर एक वैश्विक समाज के निर्माण का दिखावा असल में संभ्रांत बुद्धिवाद को चालाकी से स्थापित करते हुए समाज के कमज़ोर वर्ग के संघर्षों पैर कुठाराघात करना है.
अभी कल की बात है कि गृह मंत्री ने भारत में आतंकवाद को एक धार्मिक समूह या राजनीतिक -सांस्कृतिक समूह से जोड़ कर दिखने की कोशिश की थी. बटला हाउस कांड के कारकों को पहचानने में भी एक धार्मिक समूह का नाम उछला था. अमेरिका के जुड़वां स्तंभों पर आतंकी हमलों को भी विश्व स्तर पर मुस्लिम समुदाय से जोड़ने में देर नहीं लगी. प्रधानमंत्री इंदिरा गांघी की हत्या के बाद सिख समाज को भी लक्ष्य किया गया.
इसी कड़ी में आशीष नंदी के बयान को समझने की ज़रुरत है.
जाति व्यवस्था की मनुवादी जकड़न से भारतीय राजनीति अभी निकल भी नहीं सकी है लेकिन नए -नए तरीकों से बौद्धिक और राजनितिक खिलाड़ियों के दिल का चोर रह-रह कर बहार आ ही जाता है.लम्बे राजनितिक-सामाजिक संघर्षों के बाद हमें जो आज़ादी मिली उसके फलस्वरूप कमज़ोर तबकों की हकमारी के बदले न्याय और आरक्षण प्राप्त हुआ लेकिन आज़ादी के 65 वर्षों में उसका एक प्रतिशत भी निवारण सम्भव नहीं हो सका.इसके बावजूद संवैधानिक अधिकार और आरक्षण ब्राह्मणवादी शक्तियों की आँखों में शहतीर बना हुआ है.
लोहिया से सबक़ लिया होता
डॉ राम मनोहर लोहिया ने राजनितिक स्तर पर भारत के पिछड़े और दलित समाज को एकजुट कर कांग्रेस तथा अन्य राजनितिक दलों के संभ्रांत तथा ब्राह्मणवादी चरित्र को बेनकाब किया था.उत्तर भारत के कुछ राज्यों में मुख्यमंत्री तथा कुछ शक्तिशाली राजनेता यदि दलित तथा पिछड़े वर्ग से आने क्या लगे तो एक बोद्धिक तबका ये समझने लगा कि उस समाज का उत्थान हो गया. क्या बाबा साहेब आम्बेडकर की बौद्धिक शक्ति से यह निष्कर्ष निकला जा सकता है कि सभी दलित श्रेष्ठ बोद्धिक शक्ति प्राप्त कर चुके हैं. क्या भारत का बौद्धिक समाज इस तर्क को स्वीकार कर सकता है? हरगिज़ नहीं.
क्या आशीष नंदी जैसे कथित महान बौद्धिक व्यक्ति को नहीं मालूम कि ज्ञान,बुद्धि, कार्य-क्षमता, अच्छाई -बुराई, कर्मठता या निकम्मेपन आदि गुण तथा अवगुण व्यक्तिगत होते हैं ?इनसे समाज, वर्ग अथवा नस्ल का क्या रिश्ता? मशहूर कथन- “औलिया के घर में शैतान”. अगर ये कोई समझता है कि भ्रष्टाचार या आतंक्वाद किसी एक वर्ग, जाति या धर्म और समुदाय से पहचाना जा सकता है तो वह जनतंत्र की अवधारणाओं में स्पष्ट आस्था नहीं रखता.
हमारे देश में जनतंत्र ज़रूर कायम है लेकिन संविधान के प्रावधानों की आत्मा को देश का प्रभु वर्ग दिल से नहीं मानता. इसलिए शोषणविहीन -समतामूलक समाज की स्थापना अभी मुश्किल है. थोड़े विधायक, कुछ सांसद , चंद मंत्री या एक-दो मुख्यमंत्री, कुछ ऊँचे मकान या दो-चार-दस चमचमाती गाड़ियाँ यदि दलित या पिछड़े समुदाय के पास आ गईं तो क्यों प्रभु वर्ग के पेट में मरोड़ होने लगता है? संभ्रांत तबका इसे उस समाज के उत्थान से जोड़कर देखे और संवैधानिक अधिकारों का फलाफल माने तो किसी को परेशानी नहीं होनी चाहिए. लेकिन यह दुर्भाग्य है कि प्रभु वर्ग इसे अपना प्रतिद्वंदी समझता है. दिक्क़त यह है कि ब्राह्मणवादी शक्तियों को हजारों साल से दूसरों को बढ़ता हुआ या बराबरी पर महसूस करने या देखने की आदत ही नहीं रही.
प्रोफेसर आशीष नंदी का वक्तव्य हमारे समाज में मौजूद ब्राह्मणवाद का स्वाभाविक उद्गार है. इतने बौद्धिक व्यक्ति को कैसे मना जाये कि वह डी-क्लास नहीं है. गौर करने की बात यह है कि ऐसी साजिशी और मारक टिप्पणियां उन समुदायों के विरुद्ध की जाती हैं जो अपने अस्तित्व का संघर्ष कर रहे हैं. भारत में दलित और पिछड़ा वर्ग ही नहीं, अल्पसंख्यक और महिला समाज के बारे में अनेक षड्यंत्रकारी मत व्यक्त किये जाते हैं. इनके निहितार्थ को समझना ज़रूरी है.
एक समूह को सार्वजनिक तौर पर लांछित कर दिया जाये तो बाकी समाज में उसके बारे में गलतफहमियां फैला कर समर्थक भूमिका से तटस्थ कर देना ही प्रभु वर्ग की जीत है. पिछले दो दशकों में दलित तथा पिछड़े समुदाय के मुट्ठी भर लोग राजसत्ता में अपना हक लेने में कामयाब हुए हैं. इसी लिए अनेक स्तर पर तरह-तरह की साजिशें चल रहीं हैं. कृत्रिम मुद्दों पर बहुत जोर है लेकिन वृहत सामाजिक मुद्दों को सार्वजनिक एजेंडा से हटाया जा रहा है.
कमज़ोर तबकों की हकमारी की कुछ बानगी
1. मंडल कमीशन की सिफारिशों को अप्रभावी बनाने के लिए क्रीमी लेयर का प्रावधान. आजतक उसमें अत्यंत पिछड़े वर्ग के लिए कोई कोटा नहीं बना.
2. निजी क्षेत्रों में आरक्षण के लिए आजतक कोई ठोस पहल नहीं हो सकी. अर्थात वहां संभ्रांत तबके को शत प्रतिशत आरक्षण प्राप्त है.
3. न्यायपालिका में निम्न स्तर पर तो कुछ प्रदेशों में आरक्षण मिलता है लेकिन उच्चतर न्यायपालिका ने आज तक आरक्षण की व्यस्था से खुद को निरपेक्ष रखा है.
4. अखिल भारतीय न्यायिक सेवा का अस्तित्व इसलिए नहीं है कि न्यायपालिका का जनतांत्रिक रूप आकर लेने लगेगा तथा 500 परिवारों की मुट्ठी में क़ैद देश की न्यायिक व्यवस्था का चरित्र बदलने लगेगा.
5. महिला आरक्षण में जातीय आरक्षण क्यों नहीं होना चाहिए? सामान्य आरक्षण में जब जाति आधार है तो महिलाओं के लिए किसी दूसरे आधार को सिर्फ इसलिए बनाना चाहिए की महिलाओं के रास्ते संभ्रांत तबका सेंधमारी कर सके.
6. बिहार के प्रमुख पत्रकार – समाजकर्मी श्री प्रभात कुमार शांडिल्य ने एक समय में बिहार के सजायाफ्ता लोगों की सूची प्रकाशित की थी जहाँ सभी दलित और वंचित समुदाय के लोग थे.
7. सच्चर समिति ने अल्पसंख्यक समाज तथा पिछड़े अल्पसंख्यक वर्ग की स्थिति को अति दयनीय सिद्ध किया था. सरकार की ओर से कुछ पैसों के बाँट देने के अलावा क्या हुआ?
8. देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनितिक पार्टी भाजपा से एक भी पिछड़ा अल्पसंख्यक सांसद नहीं है.
9. बिहार सरकार में एक भी पिछड़ा अल्पसंख्यक मंत्री नहीं.
लेकिन इस हकमारी के खिलाफ सार्वजनिक मंच पर कभी भी प्रभु वर्ग में कोई चिंता नहीं दिखाई देती. कमजोरों के साथ जितनी बे-इंसाफी हो, इस पर प्रभु वर्ग को आंसू नहीं बहाना है.तब समता मूलक समाज कैसे कायम होगा? आशीष नंदी कोई अपनी बात नहीं कह रहे हैं बल्कि वह ब्राह्मणवाद के षड्यंत्रकारी आक्रोश का एक बौद्धिक प्रतिरूपण हैं. उन्हें गंभीरता से इसलिए भी लेना चाहिए क्योंकि वह समाजशास्त्र के शिक्षक, शोधार्थी तथा एक बौद्धिक के रूप में नहीं बल्कि ब्राह्मणवाद की एक असहिष्णु तथा अनुदार पीढ़ी के प्रवक्ता के तौर पर सामने आये हैं.उनके विचारों का समाजशास्त्रीय आधार होता तो ज्यादा चिंता की बात नहीं थी. लेकिन दुखद यह है कि ज्ञान-बुद्धि तथा उम्र के चरम पर पहुँच कर वे वंशभेदी और जनतंत्र विरोधी विचार प्रस्तुत कर रहे हैं जो भारत के भविष्य के लिए खतरनाक है.
सफदर इमाम कादरी कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स, पटना के उर्दू विभागाध्यक्ष रहे,उर्दू साहित्य के नामचीन आलोचक,अनेक पुस्तकों के रचनाकार व राजनीतिक टिप्पणीकार.हर तरह के सामाजिक गतिविधियों में सक्रिये.इनसे [email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है.
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