ऐसी दर्दनाक और अप्रत्याशित मौतें दिल को दहला देती हैं. पटना में रावण दहन के बाद हुई घटना से हम सब स्तब्ध हैं. बेशक इसके लिए प्रशासनिक लापरवाही और राजनीतिक नेतृत्व की सुस्ती भी जिम्मेदार है. पर क्या इस, या ऐसी घटनाओं के बाद हमारी जिम्मेदारी सिर्फ इतनी ही है कि हम ब्लेम-गेम का खेल शुरू कर दें?
इर्शादुल हक, सम्पादक, नौकरशाही डॉट इन
ऐसे समय में बिहार के विपक्ष के नेता सुशील मोदी का एक सुलझा हुआ बयान आय है. उन्होंने इस संकट की घड़ी में घायलों के उचित इलाज की बात तो कही ही है, यह भी कहा है कि ब्लेम-गेम का यह समय नहीं है. मोदी का यह बयान स्वागतयोग्य है और ऐसे संकट के समय में ऐसे बयान की सराहना की जानी चाहिए.
पटना में रावण दहन के बाद भगदड़, 34 की मौत
लेकिन जिस तरह से कुछ चैनल और उसके पत्रकार इस घटना को उठा रहे हैं उससे यह साफ जाहिर होता है कि वह ऐसे ही मौकों की तलाश में रहते हैं और समय मिलते हैं जज की भूमिका में आ जाते हैं.
ब्लास्ट पर धैर्य दिखाने वाला पटना अफवाह का शिकार क्यों हुआ
इस मामले में नेता प्रतिपक्ष सुशील मोदी की सराहना फिर से करनी होगी कि उन्होंने ऐसे मौके पर राजनीति से परहेज करने की बात कही और यह भी कहा कि हमें भीड़-प्रबंधन में हमारी अकुशलता के कारण ही ऐसी घटना हो गयी.
इन तमाम बातों के अलावा कुछ और अहम बातें हैं जिसे हम जानबूझ कोर नजर अंदाज कर देते हैं. ऐसे आयोजनों का शिकार सिर्फ आम लोग ही होते हैं. इनमें महिलायें और बच्चों की संख्या ज्यादा होती है. लेकिन हम यह क्यों भूल जाते हैं कि एक आम नागरिक होने के नाते हमारी भी कोई जिम्मेदारी है. हम क्यों अफवाहों की जद में इतनी आसानी से आ जाते हैं? हम क्यों धैर्य खो देते हैं, इतनी आसानी से? कुछ लमपट और बदमाश प्रवृति के लोग तो ऐसे मौकों का नाजायज फायदा उठाते ही हैं पर सवाल यह है कि जनमानस में सामुहिक धैर्य भी तो कोई चीज है.
हमारी जिम्मेदारी
दिल को दहला देने वाली ऐसी घटनाओं के बाद हम सिर्फ और सिर्फ सरकार और प्रशासन को कटघरे में खड़ा कर देते हैं.ठीक है हमारी सरकार और प्रशासन कई मोर्चों पर विफल रहते हैं और नाकारेपन का सुबूत देते हैं पर एक आम नागरिक के बतौर हमें पनी सामुहिक जिम्मेदारियों का भी तो एहसास होना चाहिए.
क्या हम आम नागरिक के रूप में भागम-भाग पसंद और जल्दबाज नहीं हैं? क्या हम खुद के बजाये दूसरे लोगों की सुविध का ख्याल रखने की जरूरत महसूस करते हैं. सच्चाई तो यह है कि बतौर समाज, हम खुद भी अराजक प्रवृति के हैं जो किसी नियम और कायदे को न मानना अपनी शान समझते हैं. रावण दहण के बाद जब किसी ने यह अफवाह फैलाई कि बिजली का तार टूटा है तो हम ने इतनी आसानी से पना धैर्य क्यों खो दिया?
हम कायदे-कानून नहीं मानते
इस घटना से सरकार- प्रशासन क्या सबके लेंगे यह तो देखने की बात है ही, पर यह भी महत्वपूर्ण है कि हम कायदे-कानून की धज्जी पुलिस की मौजूदगी में ही उड़ाते हैं, ऐसे में पुलिस या तो मौन खड़ी देखती रहती है या फिर एक्शन में आती है. अगर वह मौन खड़ी रहती है तो हम उसकी निष्क्रियता पर उंगली उठाते हैं और अगर वह एक्शन में आती है तो हम उस बर्बर कह कर अपना दामन बचाने लगते हैं. बेहतर है कि हम अपनी आराजकता की जिम्मेदारी भी उठायें. क्या हम रेलवे लाइन के बंद फाटक के नीचे से घुस कर अपनी साइकिलें और मोटर साइकिलें पार नहीं करते? बैरेकेटिंग को तोड़ कर हम आगे निकल जाने की होड़ में नहीं रहते? भीड़-भाड़ में क्या हम लाठी लिये पुलिसकर्मियों के आग्रह को नहीं मानना अपनी शान नहीं समझते?
यह ठीक है कि सरकारी मशीनरी को चुस्त-दुरुस्त होना चाहिए. हमारे तंत्र को क्राउड मैनेजमेंट में कुशलता पाने की जरूरत है, पर सवाल यह है कि हम बतौर भीड़ खुद कितने नियम-कायदे का पालन करने वाले बनें, जरा इस पर भी तो हमें ही गौर करना होगा. अगर हम गौर नहीं करेंगे तो हर साल दो साल में हम खुद ऐसी घटनाओं के शिकार होते ही रहेंगे.
हमने औरों के बरअक्स सरकार-प्रशासन और राजनीतिक नेतृत्व पर प्रहार करने और सवाल खड़े करने के बजाये, खुद अपनी सामूहिक जिम्मेदारियों पर सवाल खड़ा किया है, यह जानते हुए कि यह जोखिम भरा काम है. इक्के दुक्के लोग, यहां तक की कई पत्रकारों को यह अच्छा नहीं लग सकता. पर सच तो सच है.
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