इर्शादुल हक का मानना है कि जिस तरह लालू ने आडवाणी का रथ रोका था, अब केजरीवाल मोदी का रथ रोकने की दिशा में बढ़ चुके हैं इसलिए सेक्युलरवादियों और मुसलमानों को गौर करने की जरूरत है
दिसम्बर के पहले हफ्ते में दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे सामने आये तो न्यूज24 के आउटपुट एडिटर शादाब मुजतबा का फोन आया. उन्होंने दैनिक भास्कर की एक खबर के शीर्षक की चर्चा शुरू कर दी. भास्कर का शीर्षक था- “आप ने रोका भगवा रथ”. याद कीजिए कि उस दिन तक राजस्थान, छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी यानी भगवा पार्टी ने कांग्रेस को मटियामेट करते हुए धमाकेदार जीत दर्ज की थी, लेकिन दिल्ली में नवगठित आम आदमी पार्टी यानी आपा ने दिल्ली में भगवा ब्रिगेड की जीत की हसरतों को ध्वस्त कर दिया था.
भास्कर की खबर के इस शीर्षक के निहतार्थ स्पष्ट थे. अब जब दिल्ली में आपा ने सरकार बना ली है तो यह कांग्रेस के बजाये भाजपा के लिए गंभीर चुनौती के रूप में साने खड़ी है. याद करने की बात है कि आपा जब दिल्ली चुनाव में जोर आजमाइश कर रही थी तो उस पर यह आरोप लग रहे थे कि वह भाजपा से सांठगांठ कर रही है. लेकिन कांग्रेस ने आपा को सरकार बनाने में समर्थन दे कर अब यह स्पष्ट कर दिया है कि वह आपा के साथ है, या आपा उसके साथ है.
केजरवाल बनाम मोदी फैक्टर
अब सवाल यह है कि आपा का पॉलिटकल इमर्जेंस का क्या राजनीतिक प्रभाव होगा? कांग्रेस ने पिछले पांच सालों में ( दूसरे कार्यकाल) केंद्र की सत्ता में रह कर अपनी जो छवि बनायी है उससे आम लोगों में देशव्यापी तौर पर उसके प्रति जबर्दस्त नाराजगी है. और ऐसे में राष्ट्रीय स्तर पर अगर किसी एक पार्टी को राजनीतिक लाभ मिलने की उम्मीद थी तो उसकी हकदार भाजपा ही खुद को समझ रही थी. इसकी परीक्षा मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ और राजस्थान में हो भी चुकी थी, जहां भाजपा ने अपना परचम लहारा भी दिया. लेकिन दिल्ली में कांग्रेस का सूपड़ा साफ करने के लिए जिस विकल्प को लोगों ने चुना उसमें अकेली भाजपा नहीं थी. लोगों ने भाजपा को 32 तो आपा को 28 सीटें देकर स्पष्ट कर दिया कि आपा भी कांग्रेस का विक्लप हो सकती है और हुई भी. इसलिए आपा ने भगवा रथ को रोक दिया, इससे खुद भाजपा को भी इनकार नहीं है.
याद कीजिए कि दो दशक पहले लालू प्रसाद ने लाल कृष्ण आडवाणी के रथ को बिहार में रोका था. और 2013-14 में अरविंद केजरीवाल ने मोदी के नेतृत्व वाले भगवा रथ को रोक दिया. ऐसे में अरविंद केजरीवाल का इमर्जेंस भले ही भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर हुआ हो पर कहीं न कहीं वह कांग्रेस से नाउम्मीद हो चुकी जनता के लिए एक विक्लप के रूप में उभरे हैं. ऐसे में इसका सबसे बड़ा खामयाजा भाजपा को ही भुगतना पड़ेगा, यह तय है. दूसरा, आपा का इमर्जेंस उसी शहरी मध्य वर्ग के फेवर से हुआ है जो पारम्परिक रूप से भाजपा को, विकल्पहीनता के कारण सपोर्ट करता रहा हैं. यह मध्य वर्ग वह समूह है जो भाजपा के साम्प्रदायिक एजेंडे को तरजीह देने के बजाये, आपा के भ्रष्टाचार विरोधी एजेंडे को पसंद करता है.
सेक्युलरवादियों के लिए सबक
ऐसे में सवाल यह है कि सेक्युलरिज्म के अलमबरदारों के लिए क्या सबक है? कुछ धर्मनिरपेक्ष विचारों के बुद्धिजीवी, जिन में दलित, पिछड़े और मुसलमान शामिल हैं, आपा के इमर्जेंस को अपने हितों के खिलाफ मान कर चल रहे हैं. ऐसे विचारों के लोगों को अपने विचार बदलने चाहिए. उन्हें सोचना चाहिए कि आपा जितनी शक्तिशाली होगी साम्प्रदायिक राजनीति करने वाली भाजपा उतनी ही कमजोर होगी. खासकर उन प्रदेशों में जहां दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों का प्रभाव नहीं है या कम है.
ऐसे में दिल्ली के बाद हरियाणा में आपा अपना प्रभाव भाजपा की कीमत पर ही बढायेगी, यह तय है. जिन प्रदेशों में क्षेत्रीय राजनीतिक पाटिर्यां मजबूत स्थिति में हैं वहां आपा वैसे भी बहुत प्रभाव छोड़ने की स्थिति में नहीं होगी- जैसे बिहार और उत्तर प्रदेश.
यहां एक बात और भी ध्यान देने की है कि दिल्ली में आपा ने कांग्रेस से मदद लेकर यह संकेत दे ही दिया है कि लोकसभा चुनावों के परिणाम के बाद, उसकी दिल्ली की गद्दी तभी बच सकती है जब वह केंद्र में कांग्रेस के साथ खड़ी रहे. दूसरी तरफ, राष्ट्रीय जनता दल, लोक जनशक्ति पार्टी, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी पहले से ही कांग्रेस के साथ हैं. हालांकि ये तमाम पार्टियां लोकसभा चुनाव परिणामों के बाद कांग्रेस के साथ होंगी, अभी यह कहना मुश्किल है. पर यह बात चुनाव परिणामों के बाद फिर से गौर करने वाली होगी. इसलिए दलितों, पिछड़ों और खास कर मुसलमानों को आपा के समर्थन में, कम से कम उन प्रदेशों में जरूर आना चाहिए जहां सामाजिक न्याय की विचारधारा से जुड़ी क्षेत्रीय पार्टियों का प्रभाव नहीं है या कम है. क्योंकि भगवा रथ को आपा ने ही रोका है.
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