भागलपुर दंगे की जांच रिपोर्ट आ गयी है.यह मुकम्मल रिपोर्ट आने में एक चौथाई सदी बीत गयी. सवाल यह है दादा के जमाने में हुए जुल्म के गुनाहगारों को सजा पोता भी देख पायेगा क्या?

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इर्शादुल हक, सम्पादक नौकरशाही डॉट इन

कहा जाता है कि मंझा हुआ राजनेता अपने हाथों का हर पत्थर सधे हुए अंदाज में निशाने पर फेंकता है. ऐसे में अगर बात नीतीश कुमार की हो तो, उनको बारीकी से समझने वालों को पता है कि वह अपना हर कदम बड़े सधे अंदाज में बढ़ाने के लिए जाने जाते हैं. हालांकि किसी ने कहा है कि बड़ी जिम्मेदारियों को निभाने वाले लोगों से ही बड़ी गलतियां होती हैं. इस मामले में नीतीश द्वारा जीतन मांझी को मुख्यमंत्री बनाये जाने के फैसले को देखा जा सकता है. तब नीतीश ने स्वीकार किया था कि मांझी को सीएम की कुर्सी पर बिठाना उनके राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी भूलों में से एक थी. नीतीश के सधे हुए फैसले और बड़ी भूलों के बीच छिड़ी बहस के दौरान इन दिनों 1989 के भागलपुर दंगे की जांच रिपोर्ट पर चर्चा छिड़ी है. नीतीश सरकार ने 19 वर्ष पुराने इस दंगा की जांच रिपोर्ट सदन में तब पेश की जब सदन अपनी पांच वर्ष की उम्र मुकम्मल करके सत्र की समाप्ति की घोषणा कर रहा था.

रिपोर्ट पर सियासत

सवाल यह है कि अपने कार्यकाल में नीतीश ने यह रिपोर्ट आखिरी दिन क्यों रखी ? क्योंकि जैसे ही यह रिपोर्ट सदन में पेश की गयी, विपक्षी भाजपा हमलावर हो गयी. उसने कहा कि इस दंगे के दौरान नीतीश के वर्तमान सहयोगी कांग्रेस की हुकूमत थी. उसके बाद लालू प्रसाद के नेतृत्व में सरकार बनी थी. भाजपा के आरोप के मुताबिक लालू सरकार ने खुद दंगाइयों को बचाया था.

रिपोर्ट पेश करने का अपना प्रशासनिक पक्ष हो सकता है लेकिन निश्चित तौर पर इस रिपोर्ट के पेश किये जाने के बाद, नीतीश सरकार के इस कदम से, उसके दो बड़े सहयोगी कांग्रेस और राजद  ही आलोचना की जद में आ गये.

इसमें शक नहीं कि भागलपुर दंगा, बिहार क दंगों के इतिहास के सबसे खतरनाक दंगों में से एक है. तब एक हजार से अधिक लोगों की जानें गयी थीं. ऐसे में गुनाहगारों को सजा मिले ऐसा सब चाहेंगे. पर जो राजनीतिक प्रश्न है, वह यह कि क्या नीतीश ने इस रिपोर्ट के माध्यम से जो सधा हुआ निशाना लगाया है वह यह है कि वह अपने गठबंधन सहयोगी लालू प्रसाद की मुसलमानों में बनी विश्वस्नीयता को कम करके अपनी विश्वस्नीयता बढ़ाना चाहते हैं? राजनीतिक विश्लेषक सत्यनारायण मदन तो यही कहते हैं. लेकिन जनता दल यू के प्रवक्ता संजय सिंह इस पर सफाई देते हुए कहते हैं कि यह नीतीश सरकार के गुड गवर्नेंस का नमूना है. उन्होंने रिपोर्ट पेश करने का वादा किया था, सो पूरा कर दिया. हालांकि पिछले कुछ सालों से नीतीश कुमार से अलग हो कर मुस्लिम सियासत और मुस्लिम कयादत की राजनीति को मजबूत करने में लगे अशफाक रहमान कहते हैं कि सेक्युलरिज्म के नाम पर मुसलमानों को झांसा देने का खेल है ऐसी जांच रिपोर्टें. उनके अनुसार ऐसी जांच रिपोर्ट से कभी भला नहीं हुआ है. अशफाक कहते हैं कि 19 साल में भी अगर इंसाफ न मिले तो यह सरकारों का फरेब नहीं तो और क्या है.

जख्म कुरेदने के पीछे की मंशा

दंगा की रिपोर्ट पेश करने पर जद यू प्रवक्ता संजय सिंह द्वारा इसे गुड गवर्नेंस बताये जाने की बात पर अशफाक का यह याद दिलाना मायने रखता है कि जून 2011 में फारबिसगंज में पुलिस फायरिंग में छह अल्पसंख्यकों की मौत की जांच रिपोर्ट का हस्र क्या हुआ? तब खुद नीतीश सरकार ने जस्टिस माधवेंद्र शरण के नेतृत्व में जांच आयोग गठित किया था. चार वर्ष बीत गये इस जांच रिपोर्ट की किसी को सुध-बुध नहीं है. सत्यनारायण मदन भी इस मामले को नीतीश सरकार के दोहरे रवैये के रूप में देखते हैं.

हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह नीतीश सरकार ही थी जिसने भागलपुर दंगा पीड़ितों को मुआवजा दिलवाया और कई गुनाहगारों को सजा भी मिली. पर जब फारबिसगंज पुलिस फायरिंग की बात आती है तो नीतीश सरकार की कछुआचाल पर प्रश्न खड़े होना स्वाभाविक है. ऐसे में भागलपुर दंगा पर रिपोर्ट पेश करने की मंशा के पीछे की राजनीति पर सवाल खड़े होना स्वाभाविक लगता है. और फिर 19 साल पुराने मामले की रिपोर्ट पेश करने के नीतीश के कदम को कुछ लोग प्रशासनिक फैसला के बजाये सधी हुई राजनीतिक चाल समझ बैठते हैं.

दैनिक भास्कर में प्रकाशित

By Editor


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