साम्प्रदायिकता और नफरत की लहर को केजरीवाल की सुनामी ने एक झटके से रोक दिया क्योंकि साम्प्रदायिकता, लोकतंत्र में विश्वास करने वाले भारतियों का सच है ही नहीं.
तबस्सुम फातिमा
दिल्ली विधन सभा चुनाव ने भारतीय राजनीति के नये अध्याय को लिखते हुए नये प्रश्नों की श्रृंखला बिछाई है। आज़ादी के 68 वर्षों में राजनीतिक पार्टियों के विजय और पराजय को मुस्लिम वोट बैंक से भी जोड़ कर देखा गया है। मुस्लिम वोटों ने सेकुलर वोटों को बटवारा कर अक्सर भाजपा की विजय का रास्ता साफ किया है। देश में हिन्दू लहर के बहाने आरएसएस ने खुलकर अपने समर्थकों के साथ हिन्दू राष्ट्र के नारे को हवा दी। मोदी की लोकप्रियता और कई राज्यों में भाजपा को मिले विजय को हिन्दू लहर से जोड़ कर देखा गया। लेकिन दिल्ली की पराजय ने यह साबित कर दिया कि यह हिन्दू लहर नहीं थी। यह कांग्रेस के अपराधें, घोटालों, असफलताओं और हर मोर्चे पर मिलने वाली चुनौतियों के कारण हुआ।
जिसने भाजपा को लोकसभा के साथ अन्य राज्यों में भी जीत का तोहफा दिला दिया। आरएसएस, भाजपा और मोदी राजनीति की नयी सफलताओं के नशे में इतना डूब गये कि हिन्दू मन को टटोल नहीं सके। यह बड़ा सच है कि हिन्दू न हिंसक है न साम्प्रदायिक। वेदों की रचनाकाल का आरम्भ 4500 इं.पू. से माना जाता है। पुराणों में हिन्दू इतिहास का आरम्भ सृष्टि उत्पत्ति से ही माना जाता है। हिन्दू केवल एक धर्म या सम्प्रदाय नहीं है, बल्कि जीवन जीने की एक शैली है। जो अपने मन, वचन, कर्म से हिंसा को दूर रखे, वो हिन्दू है। जो अपने कर्म अपने हितों के लिए दूसरों को कष्ट दे, वह हिंसा है। हिन्दू सीधे-साधे मूर्ति पूजक थे. बाबरनामा में उल्लेख है कि जब बाबर अपनी फौज के साथ भारत आया तो उसने अपनी फौज से हिन्दुओं के बारे में कहा- यह सीधे-साधे लोग हैं, इनका मन जीतने की कोशिश करो।
हिन्दू केवल एक धर्म या सम्प्रदाय नहीं है, बल्कि जीवन जीने की एक शैली है। जो अपने मन, वचन, कर्म से हिंसा को दूर रखे, वो हिन्दू है। जो अपने कर्म अपने हितों के लिए दूसरों को कष्ट दे, वह हिंसा है। हिन्दू सीधे-साधे मूर्ति पूजक थे. बाबरनामा में उल्लेख है कि जब बाबर अपनी फौज के साथ भारत आया तो उसने अपनी फौज से हिन्दुओं के बारे में कहा- यह सीधे-साधे लोग हैं, इनका मन जीतने की कोशिश करो।
इतिहास गवाह है कि लगातार हमलों का कष्ट झेलने वाली धरती पर विरोध के रूप में कुछ ब्रहमणवादी शक्तियों ने सर उठाया। जबकि पूरे मध्यकालीन भारत में और उसके बाद के काल में भी ब्राहमणों के संबंध मुसलमानों के साथ मधुर ही रहे। लेकिन 1893 से अचानक वातावरण बदला और ब्रहमणवादी शाखाओं ने मुसलमानों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। आर एस एस के पूर्व संघ संचालक गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘म वत वनत दंजपवदीववक कमपिदमक’ में लिखा- ‘उस मनहूस दिन से जब पहली बार मुसलमान भारत में उतरा, आज तक हिंदू राष्ट्र इन लुटेरों को पराजित करने के लिए बहादुरी से लड़ रहा है।’
अमनपसंद हिंदू
देखा जाये तो यह समस्त हिंदुओं का सच नहीं था। यह मुटठी भर ब्राहमणवादी शक्तियों का सच था, जिसे देश के अमनपसंद हिंदुओं ने नकार दिया। नहीं नकारा होता तो भारतीय राजनीति में सेकुलेरिज्म की दुहाई देने वाली कांग्रेस की जगह जनसंघ, हिंदू महासभाई सोच या संघ की हुकूमत होती।
आज़ादी के बाद देश में भड़कने वाले दंगे इन सामंतवादी शक्तियों और नफरत का परिणाम साबित हुए। लेकिन इन सबके बावजूद अमन और लोकतंत्र में विश्वास करने वालों में कोई कमी नहीं आई। 2000 के बाद वैश्विक दहशतगर्दी ने खूब सर आउठाया लेकिन यह बड़ा सच रहा कि भारतीय इन सबसे अलग विकास प्रगति, अच्छे जीवन का सपना और जम्हूरी संस्कृति में ही सांस लेते रहे। इसलिए यह कहना मुश्किल नहीं कि आर एस एस समर्थकों का यह विचार गलत साबित हुआ कि मोदी का उदय दरअसल हिंदू राष्ट्र की बेचैनी है, जिसे 800 वर्षों की दासता के बाद स्वीकार किया गया है।
नफरत की हार
समूची साम्प्रदायिकता और बढ़ती हिंदू लहर को केजरीवाल की सुनामी ने एक झटके से रोक दिया। क्योंकि यह साम्प्रदायिकता लोकतंत्र में विश्वास करने वाले भारतियों का सच था ही नहीं। साम्प्रदायिकता की जड़ें भारतीय भूमि का सच नहीं बस मुट्ठी भर लोग इस जहर का प्रसार करने में लगे हैं जिसे दिल्ली चुनाव ने साबित कर दिया।
विकास की ओर बढ़ती दिल्ली या देश में समस्याएं हैं, जिनसे आम दिल्लीवासी या देशवासी जूझ रहा है। केजरीवाल ने इन्हीं मूल समस्याओं पर ध्यान दिया। दिल्ली वालों को यहां अपना आदमी नजर आया और इस मफलर मैन की सुनामी इतनी बड़ी थी कि इसका तेज बहाव सर उठा रही साम्प्रदायिकता को अपने साथ बहा ले गई।
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