नीतीश-मांझी टकराव में अहम खिलाड़ी रही भाजपा अब पहलवान के बजाये दर्शक की भूमिका में आती दिख रही है, ऐसा दर्शक जो समझ नहीं पा रही कि मांझी की जीत पर ताली बजाये या नीतीश की हार से खुशी मनाये.
इर्शादुल हक, सम्पादक नौकरशाही डॉट इन
भाजपा की इस दयनीय हालत की वैसे तो कई वजहें हैं, लेकिन एक वजह उसकी दिल्ली में करारी हार भी है. उसके हौसले पस्त हैं. दूसरा- वह मांझी नामक चक्रवात के करीब आने से खुद को डुबोने का खतरा भी मोल लेना नहीं चाहती वहीं उसके मन में यह लालच भी है कि इसी मांझी के सहारे चुनावी नैया भी पार लगायी जा सकती है.
भाजपा एक पल यह सोच रही है कि मांझी का अगर सहारा मिले तो आगामी चुनाव में उसे दलितों के बड़े वर्ग की हिमायत मिल सकती है लेकिन दूसरे ही पल यह सोच कर उसका शरीर कांपने भी लग रहा है कि मांझी को सहारा दे भी दिया जाये और खुदा न ख्वास्ता विधायकों का जुगाड़ करके मांझी सरकार बचा भी ली जाये तो इसका, उसे कोई फायदा हो, यह कहना मुश्किल है. क्योंकि भाजपा को यह डर भी सता रहा है कि जिन नीतीश कुमार को मांझी ने बिजली के करंट से भी बड़ा झटका दिया, ऐसा कैसे हो सकता है कि वही मांझी भाजपा को भी वैसा ही झटका न दे दें.
हम डूबेंगे, तुम्हे भी न छोड़ेंगे
भाजपा डर रही है. वह सकते में है. वह यह सोच कर परेशान है कि अगर अभी मांझी सरकार को वह बचाने की कोशिश कर लेती है तो नवम्बर में जब चुनाव होगा तो कहीं मांझी यह दावा न पेश कर दें कि अगला मुख्यमंत्री भी कोई दलित ही हो. आखिर इसी महत्वकांक्षा से तो मांझी ने नीतीश से दुश्मनी मोल लेने का जोखिम उठाया है, वरना नवम्बर 2015 तक तो उनकी कुर्सी सलामत ही रहती. अगर मांझी भाजपा के सहारे सरकार बचा लेते हैं तो क्या भाजपा मांझी के इस दबाव में झुकने को तैयार होगी कि अगला मुख्यमंत्री का प्रत्याशी भी उन्हें घोषित किया जाये? ऐसा भाजपा कत्तई नहीं करने वाली.
इस पूरे खेल में मांझी की वह रणनीति भाजपा के लिए जानलेवा बनती जा रही है जिसके तहत मांझी चुनाव के बाद भी मुख्यमंत्री बनने का सपना पूरा करना चाहते हैं. वह अपने जीवन की राजनीतिक सफलता के चरम बिंदु पर हैं जहां उन्हें बचाने के लिए मुख्यमंत्री का पद बचा है तो खो देने के लिए भी वही पद शेष है. यह मांझी के जीवन का वह मुकाम है जहां करो या मरो का ही विकल्प बचा है. मतलब साफ है कि वह चुनाव बाद भी बनें तो मुख्यमंत्री बनें नहीं तो कुछ नहीं बनें.
मांझी का आखिरी दाव
मांझी के इस आखिरी दाव को नीतीश भी समझ रहे हैं और भाजपा के सुशील मोदी भी. यही कारण है कि सुशील मोदी ने पिछले दिनों पहली बार इशारा कर दिया कि बिहार के लिए न तो नीतीश कुमार लाभप्रद हैं और न नही जीतन राम मांझी. मतलब सुशील मोदी जिस तरह नीतीश को अपने लिए खतरा मान रहे हैं उसी तरह मांझी को भी खतरा मानने लगे हैं. दूसरी तरफ मांझी इस मौके का हर तरह से लाभ ले लेना चाहते हैं. और यही कारण है कि मांझी, बतौर मुख्यमंरी जो प्रशासनिक फैसले ताबड़तोड़ लिये जा रहे हैं, उसका हौसला नीतीश कुमार पिछले 8 साल में कभी नहीं दिखा पाये. अनुसूचित जातियों के लिए ठेके में आरक्षण, अगड़े गरीबों को आरक्षण और अब तो ठेके पर बहाल शिक्षकों को वेतनमान देने तक का हौसला मांझी दिखाने पर आमादा हैं.
मांझी अब इस बात पर भी तैयार हैं कि अगर चुनाव बाद वह मुख्यमंत्री न भी बनें तो ऐसे फैसले कर जाओ कि जमाना देखे. मांझी कह भी चुके हैं कि ‘हम ऐसा काम कर देना चाहते हैं कि जमाना याद करे’.
वैसे 20 फरवरी आने में कुछ दिन और बचे हैं, जब सदन में यह तय होगा कि मांझी रहेंगे कि जायेंगे. उससे पहले जीतन राम खुद को एक ऐसे मांझी के रूप में पेश करना चाहते हैं जो तूफान के गुजर जाने के बाद अपनी कामयाबी का लोहा मनवा लेना चाहते हैं, भले ही उनकी यह कोशिश कामयाब हो या नाकामयाब. और यही कारण है कि भाजपा एक ऐसी ऊहापोह की हालत में है जो न खुल कर सामने आने की कोशिश कर रही है और न ही मैदान छोड़ कर भागना ही चाह रही है. खेल दिलचस्प है. बस देखते रहिये.
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