राजद की रैली में आयी भीड़ पर विपक्ष की आलोचना चाहे जो है. सच्चाई यह है कि नीतीश युग यानी 2005 से अबतक ऐसी बड़ी रैली बिहार ने नहीं देखी थी. आइए जानें कि इस कामयाब रैली के क्या क्या नाकाम पक्ष रहे जिस पर राजद को गौर करना चाहिए था.इर्शादुल हक, एडिटर नौकरशाही डॉट कॉम
27 अगस्त को आयोजित राजद की भाजपा भगाओ देश बचाओ रैली ने पार्टी में नया उत्साह भरा है. तेजस्वी यादव को पार्टी का भावी नेता स्थापित करने की दिशा में यह रैली काफी हद तक सफल रही. भाजपा के विरोधी नेताओं की ऐसी जुटान दिल्ली से बाहर पहली बार देखी गयी. इस रैली की सफलता के अनेक कारणों में सबसे महत्वपूर्ण कारण जद यू का राजद से अलग हो कर भाजपा के साथ सरकार बना लेना भी था.
लेकिन इस सफल रैली में राजद ने कुछ ऐसी गलतियां भी की, जिससे वह बच सकता था, लेकिन नही बच सका. आइए इस रैली की कुछ खामियों पर गौर करें.
एक–
यह एक ऐसी रैली साबित हुई जिसमें नेता से आगे जनता रही. जनता में आक्रोश था. यह आक्रोश नीतीश कुमार द्वारा झटके में गठबंधन तोड़ कर भाजपा के साथ सरकार बना लेने को ले कर था. राजद इस आक्रोश की भावनाओं में बह गया. लोगों के आक्रोश के घोड़े पर सवार हो कर उसने अपने आलोचना के तमाम तीर नीतीश कुमार पर दागने शुरू कर दिये. दर असल यह रैली नरेंद्र मोदी को निशाने पर लेने और भाजपा के खिलाफ लोगों को गोलबंद करने के लिए थी. पर भाजपा पीछे छूट गयी और सिर्फ नीतीश निशाने पर रहे. राजद को यह समझना चाहिए था कि उसकी असल टक्कर भाजपा से है. नीतीश विरोधी वोटरों का बड़ा समूह तो खुद ही राजद की ओर शिफ्ट कर जाने वाला है, लेकिन तब भी भाजपा को निशाना नहीं बना कर राजद के नेताओं ने भूल की.
दो
राजद सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने की दुहाई देता है.उसके इस दावे को गलत भी नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन इस रैली में सामाजिक न्याय की धारा का बैलेंस प्रतिनिधित्व दिखाने में राजद असफल रहा. मंच पर अतिपिछड़ों का प्रतिनिधित्व अगर था भी तो भाषण का अवसर अतिपिछड़े नेताओं को भी समुचित तरीके से मिलना चाहिए था.इस पर विपक्षी पार्टियों की आलोचना को गलत नहीं ठहराया जा सकता. राजद को पता है कि पिछड़े वर्गों में सर्वाधिक आबादी अतिपिछड़े वोटरों की ही है.
तीन
भाजपा विरोध की जब बात होगी तो इसमें राज्य के 17 प्रतिशत मुसलमानों की सबसे मजबूत भागीदारी होगी,इस बात का अंदाजा लालू प्रसाद से ज्यादा किसी और को क्या होगा. लेकिन रैली के मंच पर राजद की तरफ से महज एक चेहरा अब्दुलबारी सिद्दीकी का होना कहीं से उचित नहीं था. जब लालू प्रसाद खुद ही नयी पीढ़ी के नेतृत्व को आगे करने में लगे हैं तो एक अदद युवा मुस्लिम चेहरा वह क्यों नहीं सामने कर सके? इतना ही नहीं, अली अनवर जैसे जद यू से बगावत करके राजद के मंच पर बैठे नेता को इग्नोर किया गया. उन्हें बोलने का अवसर नहीं दिया गया. शरद यादव के साथ, पूरे देश में अगर किसी ने जद यू में रहते हुए जोखिम लिया तो वह अली अनवर ही थे. ऐसा करके राजद ने मुसलमानों को मायूस किया.
चार
राजद की यह पहली कामयाब रैली थी जिसमें सोशल मीडिया पर उसकी सक्रियता जबर्दस्त थी. ऊपर कहा गया है कि पिछले 12 सालों में ऐसी विशाल रैली किसी ने नहीं की, नरेंद्र मोदी ने भी नहीं. लेकिन इसके बावजूद जिस तरह से राजद की सोशल मीडिया टीम ने फोटशाप के माध्यम से भीड़ को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया, उससे उसकी किरकिरी हो गयी. इतना ही नहीं इस फोटो को राजद के शीर्ष नेताओं के अकाउंट से शेयर करके और ही उपहास करवाया गया. जबकि गांधी मैदान की भीड़ की ऑरिजिनल फोटो ही विरोधियों को चित्त करने के लिए काफी होती.