पटना, 9 सितम्बर। खड़ी बोली हिन्दी के पुरोधा-पुरुष भारतेंदु हरिश्चन्द्र आधुनिक हिन्दी के जनक हीं नहीं एक देशभक्त समाजोद्धारक, अद्भुत प्रतिभा के साहित्यकार और पत्रकार भी थे। हिन्दी साहित्य में दिया गया उनका अवदान अतुल्य है। आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास उनके काल-खँड से आरंभ होता है।
यह विचार आज यहाँ बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में आयोजित हिन्दी पखवारे के 9वें दिन भारतेंदु जयंती समारोह का उद्घाटन करते हुए, केरल और नागालैंड के पूर्व राज्यपाल निखिल कुमार ने व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि 35 वर्ष से की अल्पायु में भारतेंदु ने जो कार्य कर दिखाए, वह दुर्लभ है। उन्होंने मात्र 9 वर्ष की आयु से लेखन कार्य में प्रवृत हो गए थे तथा एक हस्त-लिखित पत्रिका का प्रकाशन भी आरंभ कर दिया था। किशोर वय में हीं उनका संपर्क बंगला के प्रसिद्ध लेखकों से हुआ था और उनका प्रभाव भी भारतेंदु पर पड़ा। उनसे प्रेरित होकर भारतेंदु ने हिन्दी साहित्य को ब्रज-भाषा की अनिवार्यता से बाहर निकालकर खड़ी बोली हिन्दी में यथार्थवादी और समाज से सीधा सरोकार वनानेवाले विषयों पर लेखन आरंभ किया।
इस अवसर पर अपने व्याख्यान में वरिष्ठ कवि रामउपदेश सिंह ‘विदेह’ ने कहा कि, भारतेंदु का काल वह था जब भारत में स्वतंत्रता के लिए तड़प शुरु हो चुकी थी। भारतेंदु ने ‘भारत-दुर्दशा’ लिखकर देश की जनता को स्वतंत्रता के लिए आहूति देने का संकल्प धारण करने को प्रेरित किया।
अपने अध्यक्षीय उद्गार में सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कहा कि भारतेंदु के कार्य चकित करते हैं। इतनी छोटी आयु में इतना बड़ा काम, जो आधुनिक हिन्दी साहित्य में एक इतिहास का सृजन कर गया, अविश्वसनीय प्रतीत होता है। भारतेंदु अपने जीवन काल में हीं हिन्दी और साहित्य के पर्यायवाची बन गए थे। उन्होंने अपना समस्त भौतिक और वैचारिक वैभव हिन्दी पर न्योक्षावर कर दिया। अपनी सारी दौलत लेखन और प्रकाशन तथा अपनी मंडली के साथ, घूम-घूम कर साहित्य के प्रचार और नाटकों के मंचन पर लुटा दिया। साहित्य-संसार में ऐसा व्यक्ति कोई दूसरा नही हुआ।
सम्मेलन के प्रधानमंत्री आचार्य श्रीरंजन सूरिदेव ने भारतेंदु को साहित्य का अवतारी पुरुष बताते हुए कहा कि भारतेंदु की प्रतिभा बहुमुखी थी। उन्होंने अपनी विशिष्ट प्रतिभा से हिन्दी साहित्य को एक नया हीं रूप दिया। आज की हिन्दी के निर्माण में जिन कुछ महापुरुषों का नाम लिया जाता है, उनमें भारतेंदु सबसे ऊपर हैं। उन्हींने पद्य और गद्य की प्रायः सभी विधाओं में साधिकार लिखा। उनके नाटक ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ तथा ‘अँधेर नगरी’ आज भी लोकप्रिय हैं। भारतेंदु आज भी उतने हीं प्रासंगिक हैं, जितने अपने काल में थे।
इस अवसर पर पूर्व राज्यपाल ने अंगिका के महान साहित्य-सेवी डा परमानंद पाण्डेय की स्मृति से जुड़ी त्रैमासिक-पत्रिका ‘परमा अंगिका’ का लोकार्पण भी किया। सम्मेलन के उपाध्यक्ष नृपेन्द्रनाथ गुप्त, पं शिवदत्त मिश्र, साहित्य मंत्री डा शिववंश पाण्डेय, डा विनोद कुमार मंगलम तथा ‘परमा अंगिका’ के संपादक ओम प्रकाश पाण्डेय ‘प्रकाश’ ने भी संबोधित किया। मंच का संचालन अर्थमंत्री योगेन्द्र प्रसाद मिश्र ने तथा धन्यवाद ज्ञापन प्रबंधमंत्री कृष्णरंजन सिंह ने किया। आरंभ में चर्चित कवयित्री आराधना-प्रसाद ने वाणीइवंदना से मंगलाचरण प्रस्तुत किया तथा सम्मेलन के संगठनमंत्री ई चन्द्रदीप प्रसाद ने मुख्य अतिथि का वंदन-वस्त्र तथा पुष्प-गुच्छ देकर अभिनंदन किया।
इस अवसर पर सम्मेलन की उपाध्यक्ष डा कल्याणी कुसुम सिंह, प्रो वासुकीनाथ झा, राजकुमार प्रेमी, शंकरशरण मधुकर, डा विनोद शर्मा, प्रवीर पंकज, विश्वमोहन चौधरी संत, नीता सिन्हा, अंबरीष कान्त, जयप्रकाश पुजारी, कृष्ण कन्हैया, डा विनय कुमार विष्णूपुरी, डा तपसी ढेंक, आचार्य आनंद किशोर शास्त्री, शालिनी पाण्डेय, गोवर्द्धनपुरी, सुनील सिंह छविराज, राकेश कुमार, वेद प्रकाश वेदुआ, प्रो सुशील झा समेत सैकड़ों की संख्या में साहित्य सेवी एवं प्रबुद्धजन उपस्थित थे।