अलकायदा से ज्यादा खूनख्वार और आर्थिक रूप से समृद्धि के बावजूद आईएआईएस की तमाम कोशिशों के बावजूद उसका नेटवर्क भारत में पनप सकने में नाकाम क्यों है ?
काशिफ युनूस
इस बात में कोई शक नहीं कि आईएसआईएस अपनी लड़ाई में मानवाधिकारों का उलंघन कर रहा है। वैसे तो मानवाधिकार का पालन किसी भी लड़ाई में अमेरिका या रूस ने भी नहीं किया है लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या अमेरिका या रूस सीरिया की लड़ाई में सचमुच आईएसआईएस के खातमे के लिये उतरा है या इस बहाने सीरिया में दोनों अपना अपना वर्चस्व बढ़ाने में लगे हैं ? और उससे भी महत्वपूर्ण ये कि अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद आईएसआईएस भारत के मुस्लिम युवाओं में क्यों नहीं फैला पा रहा अपना जाल?
ऐसा लगता कि जैसे भारतीय मुसलमानो ने ये पूरी तरह मान लिया है के प्रजातंत्र में ही देश और समाज की सारी समस्याओं का हल है. देश में फैली असहिष्णुता के कारण अगर मुस्लिम युवाओं के पैर कभी थोड़ा बहुत लड़खड़ा कर कट्टरवाद की तरफ जाने की कोशिश भी करते हैं तो देश भर में फैली मुस्लिम संस्थायें और मदरसों का नेटवर्क देश हित में एकजुट होकर खड़ा हो जाते हैं और अपनी वैचारिक व अहिंसक लड़ाई से विदेश से संचालित होने वाले उन सगठनों की कमर तोड़ देता है जो भारतीय मुस्लिम युवाओं को बरगलाने की ज़रा भी कोशिश करते हैं।
आर्थिक वर्चस्व
अगर आईएसआईएस की आर्थिक व्यवस्था को देखें तो तेल पर अपने क़ब्ज़े के कारण ये संगठन आर्थिक रूप से अल क़ायदा से भी ज़्यादा मज़बूत दिखाई देता है। शायद यही सबसे बड़ी वजह रही होगी की भारत की सूरक्षा एजेंसियों को ये लगा कि ऐसे में जबकि देश के अंदर इतनी बड़ी संख्या में बेरोज़गारी और ग़रीबी है ऐसे में आर्थिक रूप से इतने सशक्त आतंकवादी संगठन के आकर्षण से देश के युवाओं को रोकना शायद थोड़ा मुश्किल हो। वो भी तब जब देश के लगभग 40 लाख युवा अरब देशों में रोज़गार के लिए मौजूद हों और साथ में वहां मौजूद हो आईएसआईएस का नेटवर्क।
जुमा में मस्जिद के मेम्बर से गूंजने वाली इमाम की आवाज़ हो , मदरसा से आने वाले फतवे हों या मुस्लिम संगठनों की आतंकवाद के खिलाफ होने वाली हज़ारों – लाखों की भीड़ वाली रैली , सबने एक आवाज़ में आतंकवाद का ऐसा ज़ोरदार विरोध किया कि आईएसआईएस की सारी चालें नाकामयाब साबित हुईं।
मीडिया का टीआरपी
इन सबके बीच जो एक सबसे निराशाजनक बात है वह यह के चाहे सरकार हो , राजनितिक दल हों या भारतीय मीडिया , कहीं भी आतंकवाद के खिलाफ अहिंसक लड़ाई लड़ रहे इन सिपाहियों के लिए कोई जगह या सम्मान नहीं है। अगर कोई एक मौलवी भी कोई निगेटिव बात बोल दे तो पुरे देश का मीडिया में वो नेशनल न्यूज़ की तरह कवरेज पाने लगता है लेकिन अगर हज़ारों – लाखों मौलवी भी एक ज़ुबान होकर कोई अछी बात करें तो मीडिया को उसमे कोई ऐसी सनसनी नहीं दिखाई देती कि उस अछी बात को भी रोचक ढंग से दिखा कर उससे भी टी र पी बढ़ाने की कोशिश की जाये।
सनसनी और टी र पी के चक्कर में हमारा मीडिया देश हित में किये जाने वाले इतने महत्वपूर्ण प्रयासों को भी यूँही जाने देता है। ऐसे में ज़रूरी हो गया है कि मीडिया भी सुधरे और समाज के भी अलग अलग वर्ग और धर्म के लोगों का एक ऐसा नेटवर्क तैयार हो जो इन अछी बातों को समाज में फैलाये भी और आतंकवाद के खिलाफ इतने बड़े प्रयासों का श्रेय जिन लोगों को जाता है उनको सम्मानित भी करे।