कांग्रेस से हाथ मिला लेने के बाद अखिलेश यादव का चेहरा तो खिला लेकिन मुलायम के शह पर शिवपाल ने नयी पार्टी बनाने की घोषणा करके यह संदेश दे दिया है कि अखिलेश की नैया से संकट के बादल हटे नहीं हैं, वहीं मुख्तार अंसारी का साथ मिलने से मायावती का चेहरा खिल गया है.
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– तबस्सुम फातिमा
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समाजवादी पार्टी का कांग्रेस से गठबंधन हुआ तो कांग्रेस ने समाजवादी के वोरोधी पोस्टर हटा कर एक नया नारा दिया – यूपी को यह साथ पसन्द है। लेकिन सब से पहले यह साथ मुलायम सिंह को ही पसन्द नहीं आया ,जिनकी भूमिका अब आडवाणी जी की तरह समाजवादी में मार्ग दर्शक की है।
इस नयी भूमिका से न मुलायम खुश हैं ,ना ऐड़ी चोटी का ज़ोर लगा कर पराजित होने वाले छोटे भाई शिवपाल यादव। शिवपाल को उम्मीद थी कि सिंहासन न सही , सिंहासन की राजनीति करने का उन्हें पूरा अवसर मिलेगा। भतीजे अखिलेश ने यह अवसर भी उनसे छीन लिया। अब शिवपाल को समाजवादी से टिकेट ज़रूर मिला लेकिन टिकेट ले कर शिवपाल ने अपने विस्फोटक इरादे ज़ाहिर कर दिए।
मुलायम का आखिरी दाव
ग्यारह मार्च को उत्तर प्रदेश की गद्दी का ऐलान होने के बाद वह अपनी अलग पार्टी बनाएंगे। तब तक समाजवादी का हश्र देखेंगे। नयी पार्टी में मुलायम के उन समर्थकों की भूमिका होगी जो या तो पार्टी छोड़ गए या अभी तक मुलायम का हश्र देख कर सदमे से उबर नहीं पाए हैं।
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उधर मुलायम ने अखिलेश द्वारा पीड़ित उम्मीदवारों की सुध ली है। उन्हें कांग्रेस के विरुद्ध मैदान में जाने के लिए कहा है। राजनितिक मंच पर राहुल और अखिलेश के गले मिलने के बावजूद समाजवादी पार्टी समर्थकों में यह असमंजस मौजूद है कि वह किसका साथ दें और किसका नहीं।
मुलायम को लगता है कि जो 103 सीट समाजवादी से काट कर कांग्रेस को दी गयी ,वह समाजवादी समर्थकों को दी जा सकती थी। अखिलेश ने मुलायम की पसंद के 39 उम्मीदवारों पर भी कैन्ची चला दी। मुलायम की मुश्किल यह कि समाजवादी के लिए अब वह एक पिटा हुआ मोहरा बन कर रह गए हैं। और अब इस भूमिका से अलग उनके पास कुछ भी नहीं बचा है। देखा जाए तो राजनितिक कुश्ती के मैदान में वह अपने बेटे से ही चित हो चुके हैं।
असमजस में राहुल
असमंजस की हालत में सोनिया और राहुल हैं। कांग्रेस जानती है कि मुलायम के समर्थक अब भी काफी संख्या में हैं। वहीँ शिवपाल के समर्थक भी कम नहीं। मौजूदा राजनितिक समीकरण पर यह विरोधी बयानात अंकुश लगाने का काम कर सकते हैं। मुख्तार अंसारी और उनके भाई के बसपा का दामन थामने के बाद यूपी के राजनितिक समीकरण थोड़ा और बिगड़ गए हैं। इस नए साथ ने मायावती की डूबती कश्ती को सहारा देने का काम किया है.
ओवैसी फैक्टर
लेकिन मायावती जानती हैं कि इस बार का मुक़ाबला आसान नहीं। ओवैसी ने बसपा का साथ पाने की कोशिश तो की मगर सफलता नहीं मिली। अब देखना है , ओवैसी के जनसमर्थन में जुटने वाली भारी भीड़ उन्हें चुनाव में कितना फायदा पहुचाती है या इस बार भी उनका हश्र बिहार जैसा होना है।
चैनलों के सर्वे पर किसी को यकीन नहीं
इधर भाजपा अपने खेल में लगी है। इस समूचे राजनितिक संकट से किसी को लाभ होगा यह कहना मुश्किल है. मीडिया चैनल्स अभी से यूपी की सत्ता अपने सर्वेक्षणों में भाजपा के नाम कर चुके हैं। लेकिन मीडिया की बिकाऊ छवि अब दुनिया के सामने है और ऐसे सर्वेक्षणों पर किसी को भी विश्वास नहीं है।
यह सच है कि उत्तर प्रदेश की राजनीती की मुख्य धारा में अभी तक अखिलेश का क़द सब से आगे था। लेकिन मुलायम के विरोधी बयानों ने सायकिल मिलने के बावजूद टायर की हवा निकाल दी है। उम्मीद से भरी कांग्रेस को इसका सब से ज़्यादा ख़मयाज़ा भरना पड़ सकता है।
वैसे योगी आदित्यनाथ भी भाजपा की हवा निकलने का प्रयत्न कर रहे हैं. उधर कांग्रेस के लिए सताइस वर्ष बाद सत्ता में होने के सपने पर धुंध अभी बरक़रार है। .देखना है ,भविष्य में अखिलेश और राहुल का मिलन क्या गुल खिलाता है.
[author ]तबस्सुम फ़ातिमा टेलिविजन प्रोड्युसर और फ्रीलांस राइटर हैं. उर्दू- हिंदी साहित्य में दखल रखने वाली तबस्सुम महिला अधिकारों के प्रति काफी संवेदनशील हैं. दिल्ली में रहती हैं.[/author]