स्केच इकोनोमिस्ट

देश भर में संविधान की धज्जियां उड़ाकर संस्थाओं को ध्वस्त करने की कोशिशें तेज हुईं हैं। ये काम महज केंद्र सरकार ही नहीं कर रही है बल्कि देश भर की तमाम राज्य सरकारें भी कर रहीं हैं।

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असित नाथ तिवारी

सरकारें सुप्रीम कोर्ट को सुनने को तैयार नहीं हैं, संविधान की मूल भावनाओं को अमल लाने को तैयार नहीं हैं। ये संकट धीरे-धीरे बड़ा होता जा रहा है और धीरे-धीरे ही सही देश में अराजक माहौल गढ़ने की कोशिशें हो रही हैं। आदलती आदेशों को रद्दी की टोकरी में डाला जा रहा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत अदालती आदेशों का डस्टबिन है। 26 अक्टूबर को सर्वोच्च अदालत ने कहा कि अस्थायी कर्मचारियों को स्थायी कर्मचारियों के बराबर वेतन मिलना चाहिए। देश की सर्वोच्च अदालत ने कहा कि “समान काम के लिए समान वेतन का सिद्धांत” पर जरूर अमल होना चाहिए।

 

समान काम, समान वेतन

जस्टिस जेएस केहर और जस्टिस एसए बोबड़े की पीठ ने अपने फैसले में कहा कि “समान काम के लिए समान वेतन” के तहत हर कर्मचारी को ये अधिकार है कि वो नियमित कर्मचारी के बराबर वेतन पाए। पीठ ने अपने फैसले में कहा, “हमारी सुविचारित राय में कृत्रिम प्रतिमानों के आधार पर किसी की मेहनत का फल न देना गलत है। समान काम करने वाले कर्मचारी को कम वेतन नहीं दिया जा सकता। ऐसी हरकत न केवल अपमानजनक है बल्कि मानवीय गरिमा की बुनियाद पर कुठाराघात है।” पीठ ने अपने फैसले में कहा, “कोई भी अपनी मर्जी से कम वेतन पर काम नहीं करता। वो अपने सम्मान और गरिमा की कीमत पर अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए इसे स्वीकार करता है। वो अपनी और अपनी प्रतिष्ठा की कीमत पर ऐसा करता है क्योंकि उसे पता होता है कि अगर वो कम वेतन पर काम नहीं करेगा तो उस पर आश्रित इससे बहुत पीड़ित होंगे।”


जस्टिस केहर द्वारा लिखित फैसले में कहा गया है, “कम वेतन देने या ऐसी कोई और स्थिति बंधुआ मजदूरी के समान है। इसका उपयोग अपनी प्रभावशाली स्थिति का फायदा उठाते हुए किया जाता है। इसमें कोई शक नहीं कि ये कृत्य शोषणकारी, दमनकारी और परपीड़क है और इससे अस्वैच्छिक दासता थोपी जाती है।”
अदालत ने अपने फैसले में साफ कह कि समान काम के लिए समान वेतन का फैसला सभी तरह के अस्थायी कर्मचारियों पर लागू होता है।

संघीय ढ़ांचा तोड़ने की कोशिश


आज तक न तो केंद्र सरकार ने इस फैसले पर अमल किया और ना ही देश के किसी राज्य की सरकार ने। ये बेहद हैरान करने वाले तथ्य हैं। सरकारें अदलाती आदेशों को मानने को तैयार नहीं हैं। संघीय ढांचे को तोड़ने की कोशिशें तेज हुईं हैं। ये बहुत बड़ा ख़तरा है। जब कोई किसी की सुनेगा ही नहीं तो फिर अराजक हालात पैदा हो जाएंगे। संस्थाएं खत्म होती जाएंगी और जो बचेंगी वो बेलगाम होकर तानाशाही पर उतारू हो जाएंगी। फिर इनका आपसी टकराव देश को अराजक स्थिति में झोंक देगा।

मेरा मानना है कि देश की जनता को लोकतांत्रिक तरीक़े से संघीय ढांचे की रक्षा के लिए आगे आना चाहिए। हमें अपने हुक्मरानों को ये एहसास कराते रहना होगा कि देश संविधान की रौशनी में ही आगे बढ़ेगा और जो इसे मानने को तैयार नहीं हैं देश उन्हें स्वीकार नहीं करेगा।

By Editor


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