आखिर मुलाय ने अपनी पार्टी को बुहचर्चित महागठबंधन से क्यों अलग कर लिया? ईमानदारी से कोई राजनेता जवाब देने के बजाये रणनीतिक जवाब ही देगा. इसलिए आइए उन कारणों की तलाश करते हैं.
इर्शादुल हक, सम्पादक, नौकरशाही डॉट इन
मुलायम को नजर अंदाज किया
- छह महीने पहले लालू प्रसाद और शरद यादव ने जबरन मुलायम सिंह यादव को उस पार्टी का अध्यक्ष घोषित कर दिया जिसका न तो वजूद था और न ही कोई चुनाव चिन्ह. लालू-शरद-नीतीश ने पहले घोषणा की कि उनके दल मिल कर एक नयी पार्टी बनायेंगे पर ऐसा कभी नहीं हुआ. बाद में इन दलों ने महागठबंधन बनाने की घोषणा की. उस दिन तक लालू समेत तमम नेता मुलायम सिंह को अपना गर्जियन कहते नहीं थकते थे. लेकिन देखते देखते चीजें बदलती चली गयीं. सपा के ये राम गोपाल यादव ही हैं जिन्होंने तब घोषणा की कि बिहार चुनाव तक नयी पार्टी नहीं बन सकती. लेकिन जब गठबंधन बना तो नीतीश कुमार ने अपना निजी प्रचार अभियान शुरू कर दिया. उधर लालू ने भी अपनी पार्टी की तरफ से बैनर होर्डिंग लगवाने शुरू कर दिये. इन दोनों दलों के होर्डिंग में गार्जियन बताये जाने वाले मुलायम कहीं नहीं थे. उसके बाद जब सीट शेयरिंग की बात आयी तो मुलायम की पार्टी के किसी भी नेता को उस बैठक में बुलाया तक नहीं गया. बल्कि सीट शेयरिंग की सूचना सपा के नेताओं को अखबारों से मिली. यह सच है कि सपा का वजूद बिहार में कुछ नहीं लेकिन जब मुलायम को गार्जियन माना गया तो सीट शेयरिंग पर चर्चा के लिए नहीं बुलाना मुलायम की पार्टी के लिए अपमानजनक लगा.
प्रेशर गेम
- मुलायम की पार्टी संभव है कि अब भी महागठबंधन का हिस्सा बनी रहे. लेकिन यह तब संभव है जब लालू-शरद-नीतीश की तरफ से उनके चौखट पर दस्तक दिया जाये. ऐसे में यह जानते हुए कि मुलायम की पार्टी का कोई खास वजूद बिहार में नहीं है, उन्हें कुछ और सीटें दी जायें. साथ ही प्रचार के होर्डिंग्स बैनर में मुलायम की तस्वीरें प्रमुखता से छापी जायें. राजनीतिक विश्लेषकों की स्पष्ट मान्यता है कि मुलायम भले ही गठबंधन की जीत में बिहार में कोई खास भूमिका नहीं निभा सकते, लेकिन यह तय है कि उनकी पार्टी गठबंधन को हराने में बड़ी भूमिका निभा सकती है. पिछले चुनावों को याद करें तो पता चलता है कि कैसे 2010 के चुनाव में मुलायम ने बिहार से 146 उम्मीदवार खड़े किये थे. उनका एक भी उम्मीदवार नहीं जीता लेकिन उसका खामायाजा लालू प्रसाद की हार के रूप में सामने जरूर आया. ऐसे में लालू-नतीश-शरद के सामने मुलायम को मनाने के अलावा बहुत ज्यादा विक्लप नहीं बचता.
भाजपा से नजदीकी, पर कितनी ?
- समाजवादी पार्टी के महासचिव राम गोपाल यादव पिछले दिनों भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से मिले थे. उसी वक्त से कयास लगाया जाता रहा है कि समाजवादी पार्टी महागठबंधन के मुद्दे पर प्रेशर गम खेल सकती है. वैसे कुछ विश्लेषकों का मानना है कि सपा ने पिछले कुछ दिनों में भारतीय जनता पार्टी से अपनी नजदीकियां बढ़ाई हैं. संसद में एक बिल का समर्थन कर सपा ने यह जता भी दिया है. लेकिन जहां तक लम्बी राजनीति का मामला है मुलायम का वजूद ही भारतीय जनता पार्टी के विरोध पर ठहरा है. इसलिए वह किसी हाल में भाजपा गठबंधन का हिस्सा बनने की भूल नहीं कर सकते. क्योंकि उन्हें पता है कि अगर वे यह गलती करते हैं तो उन्हें उत्तर प्रदेश में 21 प्रतिशत मुसलमानों के समर्थन से हाथ धोना पड़ सकता है. जहां तक कांग्रेस की बात है तो कुछ ना नकुर के बावजूद वह कांग्रेस से अप्रत्यक्ष नजदीकी बढ़ाने में भी संशय महसूस कर रहे होंगे. जबकि बिहार में महागठबंधन सोनिया की कांग्रेस को साथ ले चुका है.