वैसे राजनीति में तो सब अपनी चालें साधते हैं, पर मुख्यमंत्री मांझी को हटाने-बनाये रखने के शिगुफे की चाल दिचस्प हैं जहां नेता तो नेता मीडिया का एक वर्ग भी अपनी चाल बखूबी चल रहा है.
इर्शादुल हक, सम्पादक नौकरशाही डॉट इन
अब यह साफ होता जा रहा है कि मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी नहीं हटायें जायेंगे. यह पहले भी उतना ही स्पष्ट था. और उस वक्त तो बिल्कुल स्पष्ट था जब नीतीश ने बिन मांगे बिहार का ताज जीतन राम मांझी नामक एक ऐसी कैबिनेट सहयोगी के सर पर डाल दिया था जो अपने कई कैबिनेट सहयोगियों के मुकाबले गुमनाम और मीडिया से दूर रहते थे.
फिर इस शिगुफे का मतलब क्या है? कौन चल रहा है अपनी चाल? और कौन इस चाल से क्या लाभ लेना चाहता है?
सबसे पहले यह जानने की जरूरत है कि नीतीश कुमार, जिन्होंने एक झटके में बिहार का ताज इसलिए मांझी के सर पर डाल दिया कि वह भारतीय जनता पार्टी से लोगसभा चुनाव में हुए अपमानजनक हार का इंतकाम 2015 के बिहार असेम्बली चुनाव में लेना चाहते थे. किसी को इस बात का संदेह नहीं होना चाहिए कि नीतीश सिर्फ बिहार ही नहीं बल्कि भारतीय राजनीति के धुरंधरों में से एक हैं. बिहार की राजनीति में तो उनके मुकाबले उनके समकालीन नेता किसी भी तरह उन पर फिलहाल बीस नहीं पड़ते. तो यह बात जिनको समझ में आती है, वह किसी भी हाल में विश्वास नहीं कर सकते कि मांझी को नवम्बर में होने वाले चुनाव से पहले नीतीश हटाने की कभी सोच भी सकते हैं. आखिर नीतीश अपने कुर्सी त्याग को अपने राजनीतक पतन की इबारत लिखने में क्यों और कैसे बदल सकते हैं ? वह क्यों राजनीतिक सुसाइड करना चाहेंगे?
तो यह है मामला
दर असल पिछले चार दिनों से चल रहे नीतीस-मांझी गेम का दो महत्वपूर्ण ऐंगल है. एक ऐंगल मीडिया के सामंती चरित्र और टीआरपी से जुड़ा है तो दूसरा ऐंगल राजनीतिक शतरंज की बिसात पर अपनी-अपनी चाल साधने से जुड़ा है.
इसकी शुरुआत तब हुई जब मांझी ने पिछले दिनों टॉप लेवल के 20 नौकरशाहों को एक तुफानी तबादले में हटा दिया. कहा जाता है कि नौकरशाही नीतीश की सबे दुखती रग है. उन्होंने सात सालों में नौकशाही की विश्वसनीय टीम बनायी है. इसी खबर से हवा में कुछ अफवाह और कुछ तुक्केबाजी फैली. पर जो लोग जानते हैं उन्हें पता है कि कुछ ऐसे नौकरशाहों का तबादला अवश्यसंभावी था जो अपनी मियाद पूरी कर चुके थे. हां यह भी है कि मांझी मुख्यमंत्री सचिवाल में ऐसे नौकरशाहों को लाना चाहते थे जो उनके प्रति निष्ठा रखते हों. खैर. इस अफवाह और तुक्केबाजी को मीडिया ने और हवा दे दी. उसे टीआरपी तो चाहिए ही सात ही मीडिया का एक वर्ग, भाजपा जदयू अलग होने के बाद से नीतीश का आलोचक बन गया, उसी वर्ग ने स्पेकुलेशन का बाजार और गर्म कर दिया.
नीतीश की चाल
पर ऐसा ही नहीं है कि सरा दोष मीडिया का ही है. इसमें खुद नीतीश ने भी अपना तात्कालिक लाभ देखा. कई घंटों तक उन्होंने इस स्पेकुलेशन को रणनीतिक तौर पर अपने हित में इस्तेमाल किया. इसके लिए उन्होंने गोलमोल जवाब दे कर इस स्पेकुलेशन को और हवा दे दी. पत्रकारों के एक सवाल के जवाब में उन्होंने पहले कहा कि मैं इसपर [मांझी को हटाने या बने jहने} पर कुछ नहीं कह सकता. दर असल मीडियाई स्पेकुलेशन से वह चाहते थे कि मुख्मंत्री मांझी को यह संदेश जाये कि वह अपनी कुर्सी की सलामती के बारे में मुगालता न पालें. यह उनका एक प्रेसर टैक्टिस था. लेकिन जैसे ही यह मामला, नीतीश, लालू और शरद को लगा कि, अब खराब हो जायेगा और इससे दलित समुदाय में गलत मैसेज जायेगा, वैसे ही तीनों ने इसका जोरदार खंडन किया. इस प्रेसर टैक्टिस को मांझी बखूबी समझ गये. और उन्होंने साफ कहा भी कि “नतीश बहुत चालाक हैं जबकि मैं फूहड़ हूं कुछ भी बोल देता हूं. नीतीश की बात को सब कोई नीं समझ सकता.उनके एकएक शब्द में कोई न कोई संदेश छुपा रहता है”.
भाजपा का प्रोत्साहन
सारांश यह कि नीतीश और मीडिया के एक वर्ग ने इस खेल को अपन अपने तरीके से आगे बढ़ाया. लेकिन अंजाम वही हुआ जो पहले से तय था. यानी मांझी को हटाने जैसी खबरों से अपने-अपने हित देखना. भाजपा भी इस मामले को खामोशी आगे बढ़ाती रही. सूत्र बताते हैं कि भाजपा ने मीडिया के कुच लोगों को इस खेल को आगे बढ़ाने की लिए प्रोत्साहित भी किया. मीडिया के गंभीर लोग भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि मांझी को बीच मझदार में से हटाने की गलती नीतीश सोच भी नहीं सकते. हुआ वही. सबने खंडन किया. लालू ने भी, शरद ने भी और खुद नीतीश ने भी. और मीडिया? वह अब किसी और मुद्दे की तरफ बढ़ जायेगा. टीआरपी और अपने हित की तलाश में.