वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के इर्दगिर्द मडराते मीडिया और सियासत की सेकी जा रही रोटियोंं की गहमागहमी के कुछ रहस्यमय पहलुओं को उजागर कर रहे हैं.
∏ में राजनीतिक और प्रशासनिक कवायद सिर्फ एक ही व्यक्ति के ईद-गिर्द सिमटती जा रही है। वह है मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी, जो अपने बयानों से खासे चर्चित हैं। इनके बयान राजनीतिक गलियारे को गरम करने के लिए काफी होते हैं। जाहिर है ऐसे में विकास कार्य और जनसमस्याओं का समाधान कैसे हो सकता है? खुद समस्या पैदा करना और फिर उस समस्या को लेकर अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए सवाल खड़ा करना कौन सी सियासत है. इस सियासत की भेंट कौन चढ़ रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं इसके आड़ में जन मुद्दों से लोगों को भटकाना भर है।
राजनीति को सत्तापक्ष और विपक्ष की धुरी में उलझाकर मजा लेने की इस सियासत में बिहार का नुकसान हो रहा है। सुबह से रात सिर्फ मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के इर्दगिर्द सियासत चल रही है. यह कैसी सियासत है? इस सियासत में सिर्फ सियासी लाभ ही लिया जा सकने वाला तंत्र दिखता है। जनता के फायदे की बात समझ से परे है।
जबसे जीतन राम मांझी मुख्यमंत्री बने हैं तबसे वे तो अपना काम कर रहे हैं पर दूसरे लोग अपना काम करने के बजाय उनके काम का पोस्टमार्टम करके अपना-अपना फायदा तलाश रहे हैं। कोई उनके बयान को लेकर हो- हल्ला मचाये हुए है तो कोई उनके दलित होने को लेकर मुद्दा बनाने से भी परहेज नहीं कर रहा है।
मुख्यमंत्री के तौर पर श्री मांझी क्या कहते हैं, उनके कहने का अंदाज क्या है इससे कहीं ज्यादा जरूरी यह है वे क्या करते हैं? विपक्ष कभी उनकी तारीफ में कसीदे कहता है तो कभी सवाल खड़ा करता है? अब उनके अपने दल के बड़े नेताओं से कैसा संबंध है? शब्दों के तीर से निशाना साधा जाता है। मीडिया भी मुख्यमंत्री मांझी को बयानमंत्री मान बैठा है। मजा, मीडिया भी ले रहा है और राजनेता भी।
मीडिया और मांझी
विवाद खड़ा करने के लिए कुछ बयान दिलवा दिया जाता है। ताकि सवालों के घेरे में मुख्यमंत्री फंस जाये और सरकार को घेर लिया जाये। फिर तो, पार्टी भी घेरे में आ जायेगी ? मीडिया, मांझी को केवल खबर के तौर इस्तेमाल कर रहा हैं। खासकर बयानों के मामले में।
एक दौर था जब मीडिया लालू प्रसाद को भी उनके बयानों को खूब भुनाने से परहेज नहीं करता था। दोनों नेता जमीनी है। और उनके बयानों में कोई राजनीति नहीं होती। लेकिन मीडिया उसका इस्तेमाल खबर को बेचने के तौर पर करता दिखता है। ऐसे में उनके बयान राजनीतिक बन जाते हैं।
खुद मीडिया में ही श्री मांझी बयानों को लेकर उन्हें हटाने की भी गोलबंदी होने लगती है। सवाल अक्सर उठने लगते हैं क्या उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाया जायेगा. क्या उन्हें विधानसभा चुनाव के बाद फिर से सीएम बनाया जायेगा. उनका अगला कदम क्या होगा.
सवाल उठता है कि क्या आज जीतन राम मांझी जो कुछ भी कर रहे हैं क्या उस तरह की कार्यशैली इससे पहले किसी दूसरे नेता ने नहीं अपनायी? मामला पक्ष या विपक्ष का नहीं। राजनीति का है,जो सियासत से जुड़ेगा वह उसमें अपनी ताकत बनाने की कोशिश करेगा और जाहिर है किसी खास वोट बैंक को प्रभावित करने के लिए खास अंदाज और कार्यशैली भी अपनायेगा.
सत्तारूढ़ दल के बड़े नेता कभी-कभी कुछ तल्ख टिप्पणियों को लेकर मुख्यमंत्री से बातचीत कर उन्हें नसीहत देते हैं तो इसमें सवाल कहां बनता है। वे लोग राजनीतिज्ञ हैं और अपने सियासी खेमे के नफा-नुकसान का ख्याल रखेंगे हीं। अब प्रशासनिक अधिकारियों का तबादला किया जाता है तो उसमें सियासत और मांझी के मसाले तलाशे जाते हैं। जब गृह सचिव की कार्यशैली को लेकर उन्हे बदलने की मांग पूरी नहीं हुई तो सवाल आया वे किस खेमे के हैं। मशविरा का दौर भी चलता रहा है तो इस पर भी सवाल कि परदे के पीछे से शासन कौन चला रहा है। सवाल उठता है कि क्या सत्तारूढ़ दल के नेता खुलकर ऐसा कोई दिशा-निर्देश देते हैं और उनकी चाहत पर कोई फैसला लिया भी जाता हैं ? जवाब साफ है ऐसे फैसले तो सभी सत्ताधारी दल में होते है।
सरकार गिरा कौन रहा है
जदयू के बागी विधायक खुलेआम अपनी पार्टी की मुखलाफत कर रहे हैं। बागी नेता मीडिया को बताते हैं कि उन्हें इस-उस दल ने अपने दल में शामिल होने का न्यौता भी दिया है। पटना होईकोर्ट से सदस्यता बरकरार रखने का राहत पाने के बाद ये लोग कह रहे हैं कि हमलोग विपक्ष के सहायोग से मांझी सरकार को बचायेंगे तो सवाल यह है कि मांझी सरकार को आखिर गिरा कौन रहा है? खुद मांझी कह रहे हैं कि वे सिर्फ अपना काम कर रहे हैं।
विपक्षी दल के नेताओं के लगातार अपने बयानों से राज्य में सबकुछ बिगड़ जाने का मैसेज पब्लिक में देते हुए यह बताया जाता हैं कि इसके पीछे मांझी को लेकर सत्ता रूढ़ दल में चल रहा खींचदान हाल के विलय की सियासत है। दूसरी ओर मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के मायने बिहार की राजनीति को देखा जाये तो साफ है दलित कार्ड के खेल में बिहार की राजनीति हिचकोले खा रही है। बिहार की सामंती राजनीति को यह बात पचती नहीं और मुख्यमंत्री…..मुख्यमंत्री का खेल खेला शुरू हो जाता है।
मांझी के मायने
बयानों के जो भी मायने हों लेकिन मांझी के अपने मायने है। संदेश जा चुका है। आने वाले चुनाव में यह तभी तो मांझी के बयान पर पक्ष और विपक्ष की राय कभी मेल खाती हैं तो कभी बेमेल हो जाती है। वहीं, मुस्लिम मिजाज बस हालात को देख रहा है। बिहार की राजनीति का रूख, जाति समीकरण की ओर जायेगा या धार्मिक या फिर सामाजिक ? जो भी हो, देखना तो उस जनता को ही है जो वर्षों से उपेक्षित रही है, उसमें दलित-पिछड़े-मुस्लिम महत्वपूर्ण है और आने वाले राजनीतिक धुरी में मजबूती से खड़ी रहेंगे। इनके बिना सत्ता-सत्ता का खेल नहीं खेला जा सकता है।
(लेखक इलैक्टोनिक मीडिया से जुड़े हैं)