एम जे वारसी अमेरिका में वैसे लोगों से मिले जो फर्राटेदार अंग्रेजी तो बोलते हैं पर उन्हें तभी सुकून मिलता है जब कोई ऐसा हमवतन मिले जो मातृभाषा में बात करे.
आज सरे विश्व में मातृभाषा दिवस मानाया जा रहा है. वैसे तो हर भाषा कहीं किसी के लिए मातृभाषा होती है तो कहीं किसी और के लिए द्वितीय या काम-काजी भाषा बन जाती है. पूरी दुनिया में संवाद स्थापित करनेका सब से सशक्त माध्यम मातृभाषा ही होती है. शुरू से लेकर आज तक सभी कौम- हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि के बीच उनकी अपनी मातृभाषा आपस में समन्वय व संवाद कायम करने में अहम भूमिका निभाती रही है.
हिंदी समाज के सभी वर्गों के विकास में बराबर की सहयोगी रही है। समय चाहे आपातकालीन रहा हो, संघर्ष का रहा हो, स्वाधीनता की लड़ाई का रहा हो या फिर शीतक़ालीन युद्ध का रहा हो सभी कौमों के लोगों के बीच उनकी अपनी मातृभाषा की भूमिका हमेशा महत्वपूर्ण रही है.
मातृभाषा की अहमियत पर फ़िरदौस खान अपने एक लेख में लिखते हैं कि “रूस के प्रसिद्ध लेखक रसूल हमज़ातोव ने अपनी किताब मेरा दाग़िस्तान में ऐसे कई क़िस्सों का ज़िक्र किया है, जो मातृभाषा से जु़डे हैं. मातृभाषा की अहमियत का ज़िक्र करते हुए मेरा दाग़िस्तान में वह लिखते हैं, मेरे लिए विभिन्न जातियों की भाषाएं आकाश के सितारों के समान हैं. मैं नहीं चाहता कि सभी सितारे आधे आकाश को घेर लेने वाले सितारे में मिल जाएं. इसके लिए सूरज है, मगर सितारों को भी तो चमकते रहना चाहिए. हर व्यक्ति को अपना सितारा होना चाहिए. मैं अपने सितारे-मातृभाषा को प्यार करता हूं.”
परिवार और मातृभाषा
अमेरीका में वैसे तो मेरे बहुत सारे मित्र हैं लेकिन मैं आप को मेरे एक खास मित्र तनवीर हसनैन के बारे में बताना चाहता हूँ. मेरी उनसे मुलाक़ात शायद सबसे पहले सन 2007 में हुई थी. उन्होंने एक दिन मुझे खाने का निमंत्रण देकर घर बुलाया। मैं बहुत खुश था के काफी दिनों बाद अच्छा खाने को मिलेगा. लेकिन थोड़ा गंभीर भी था कि बात-चीत अंग्रेजी में करनी पड़ेगी और वह भी बहुत गंभीर अंदाज़ में क्योंकि अब तक सिर्फ फ़ोन पर धरा-प्रवाह अंग्रेजी में ही बात की थी जिस से लगता था कि उनका परिवार, जिनमें तीन बच्चे भी शामिल हैं, बिलकुल अमेरिकनाइज्ड हो गए होंगे. जब मैं उनके घर पहुँचा और घंटी बजाई तो एक अधेड़ उम्र का आदमी सामने आकर दवाजा खोला और बिना किसी आव-भाव के बोले कि आप वारसी साहब हैं न! मैं ने कहा yes, I am. फिर उन्हों ने कहा कि अरे वारसी साहब अंग्रेजी छोड़िये, आइये हम अपनी मातृभाषा में बात करते हैं.
मुलाकात हुई, बात हुई
उन्होंने मुझ से कहा कि हम अंग्रेजी बोल-बोल कर परेशान हो गए हैं आइये आज ज़रा दिल खोलकर अपनी मातृभाषा हिंदी-उर्दू में बात करते हैं. फिर क्या था–शायद ही भारत या बिहार का कोई ऐसा मुद्दा न रहा हो जिसे हम ने अपने बात-चीत का हिस्सा न बनाया हो. हमें काफी दिनों के बाद ऐसा माहौल मिला था इसलिए हमने भी अपने दिल की साड़ी भड़ास निकाल डाली। और हमें पता भी नहीं चला कि कब दोपहर से शाम हो गई. जब उनकी पत्नी और बच्चे आये तब पता चला कि समय किस तरह बीत गाय. हद तो तब हो गई जब उन्होंने अपने बच्चों से मिलवाया और मैं उनकी बातों को सुना ही रह गया. उनके बच्चे भी अमेरीका में जन्म लेने के बावजूद बग़ैर किसी रुकावट के हिंदी में बात कर रहे थे.
भाषा वैज्ञान की दृष्टि से जब मैं देखता हूँ तो मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं होता कि बहुभाषीय होना इंसान के स्मरण शक्ति को बढ़ा देता है. लेकिन कुछ ऐसे भी देश हैं जहां आज भी अपनी मातृभाषा के इलावा कोई और भाषा सीखना पसंद नहीं करते. अगर आप पर्यटक के तौर पर फ़्रांस, जर्मनी, इटली, या फिर चीन जाएँ तो वहाँ आप को हर इंसान अपनी मातृभाषा में ही बात करता हुआ मिलेगा. वैश्वीकरण के इस दौर में लोगों ने अंग्रेजी की तरफ ध्यान तो दिया है लेकिन अपनी मातृभाषा को सर्वोप्रिय रखा है. अगर आप जर्मनी या फ़्रांस में किसी से बात करने की कोशिश करें या फिर कहीं जाने का रास्ता अंग्रेजी में पूछें तो उनके व्यवहार से आपको ऐसा लगेगा जैसे आप ने कोई गुनाह कर दिया हो. वह आप की बात को सुनकर भी अनसुनी कर देगा या फिर समझकर भी ऐसा प्रतीत करेगा कि उसको अंग्रेजी समझ में नहीं आती है. वहीँ दूसरी ओर अगर आप उनकी भाषा जैसे फ्रांसीसी या जर्मन में टूटे-फूटे अंदाज़ में भी कुछ बोलें तो उनके चेरे की रौनक देखते ही बनती है और ऐसा लगने लगता है कि उनसे आप का जैसे जन्म-जन्म का नेता हो. और वह हर तरह से आप की मदद करने को तैयार रहता है. इसे देखकर लगता है कि वाक़ई लोग अपनी मातृभाषा से कितना प्यार करते हैं.
अब समय आ गया है कि हमें अपनी मातृभाषा तथा अंग्रेजी के साथ-साथ और दूसरी भषाएँ भी सीखनी चाहिए क्योंकि हर भाषा की अपनी जगह अहमियत है. भाषा सीखने से जहाँ एक तरफ रोज़गार के दरवाज़े खुलते हैं तो दूसरी तरफ दूसरे देशों के लोगों की संस्कृति और रहन-सहन के बारे में भी जानने का मौक़ा मिलता है. और बहुभाषीय होने से सबसे अधिक यह होता है की हमारी स्मरण शक्ति बढ़ती है. ऐसे में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि रोज़गार अर्जित करने के लिए अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में ज़रूर भेजिए लेकिन उन्हें अपनी मातृभाषा से वंचित मत कीजिए. उन्हें अपनी मातृभाषा बोलने और सिखने दीजिये जो पिछले हज़ारों सालों से उनके आबाओ अज़दाद बोलते आए हैं. इससे वे अपनी संस्कृति को सझते हुए एक बेहतर इंसान जरूर बनेंगे। अगर अमेरिका की किसी सड़क या बाजार में कोई “नमस्ते! आप कैसे है?” बोलता मिल जाये तो आप को कितनी ख़ुशी होगी जो आप हजारों डॉलर खर्च करके भी नहीं खरीद सकेंगे। हमें ऐसी सकूँ का एहसास सिर्फ अपनी मातृभाषा में ही मिल सकती है.
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एम जे वारसी जाने-माने भाषा वैज्ञानिक हैं और अमरीका के वाशिंगटन यूनिर्सिटी में कार्यरत हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.