भले ही समाज में दलितों के अछूतेपन की गांठें कुछ कमजोर हुई हैं पर न्यायपालिका के बाद मीडिया भी ऐसा क्षेत्र है जहां दलित आज भी लगभग छूत बना कर रखे गये हैं. रेडियो पत्रकार संजय कुमार की पुस्तक इन तथ्यों को प्रमाणिकता प्रदान करती हैं. वरिष्ठ पत्रकार लीना की समीक्षा-
मीडिया में दलित हिस्सेदारी एवं दलित सरोकारों की अनदेखी सहित अन्य मुद्दों को लेखक-पत्रकार संजय कुमार की सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘मीडिया में दलित ढूंढते रह जाओगे’ को सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है.
मीडिया से हर कोई परिचित है, पर मीडिया से सबका साबका-सामना होता है. पहले मीडिया यानी पत्रकारिता मिशन हुआ करती थी.। अब यह व्यवसाय बन चुका है. मीडिया पूरी तरह से बाजार के गिरफ्त में है. जो आरोपों से घिरा हुआ है. आरोपों में, भारतीय मीडिया पर अक्सर मनुवादी मानसिकता का सबसे गंभीर आरोप है.
व्यवसाय में तबदील मीडिया पर जातिवाद, भाई-भतीजावाद आदि के आरोप भी लगते रहे हैं. मीडिया के जाति प्रेम का खुलासा, सर्वे रिपोर्टों से हो चुका है. लम्बे समय से पत्रकारिता से जुडे संजय कुमार की पुस्तक ‘मीडिया में दलित ढूंढते रह जाओगे’ का शीर्षक खुद-ब-खुद वस्तुस्थिति को पटल पर ला खड़ा करता है.
मीडिया में दलितों की हिस्सेदारी नहीं है. भारतीय मीडिया में दलितों के सवालों के प्रवेश पर अघोषित प्रतिबंध को किताब बेनकाब करती है.
प्रस्तुत पुस्तक संजय कुमार के मीडिया और दलित मुद्दों पर लिखे गये लेखों का संग्रह है. समसामयिक घटनाओं का उदाहरण और आंकड़ा देते हुए उन्होंने अपने लेखों को विस्तार दिया है. पुस्तक में दलित मीडिया से संबंधित चौदह आलेख हैं. इसमें दलित संवेदना को कविता में पिरोकर दलितों की आवाज बुलंद करने वाले ‘हीरा डोम’ को पुस्तक समर्पित किया गया है.आलेखों में हीरा डोम की 1914 में की गई दलित की शिकायत को आज भी प्रासंगिक बताया गया है.
लेखक उदाहरण और आंकड़ों से बताते हैं कि अभी भी समाज ऊंच-नीच का जो फासला है उसके लिए द्विज ही जिम्मेदार हैं. ‘मीडिया में दलित ढूंढते रह जाओगे’ में सप्रमाण यह सिद्ध किया गया है कि मीडिया घरानों में उंचें पदों पर सवर्ण ही आसीन है और उन्होंने ऐसा चक्रव्यूह रच रखा है कि किसी दलित का वहाँ पहुंच पाना ही असंभव होता है. अगर किसी तरह पहुंच भी गया तो, टिक पाना मुश्किल है.
जाति का सवाल
संजय ने शोधपरक आलेखों में चैंकाने वाले तथ्य दिए है. मीडिया में जाति के सवाल को लेकर प्रभाष जोशी और प्रमोद रंजन के बीच हुई बहस को पुस्तक में रखा गया है. वहीं ‘मीडिया भी जाति देखता है’ में मीडिया के जाति प्रेम को रेखांकित किया गया है.
पुस्तक में दलित सवालों की अनदेखी व दलितों से मुंह फेरते मीडिया को घेरने का प्रयास किया गया है. किस तरह से दलित आंदोलन को मीडिया तरजीह नहीं देता है, उसे भी उदाहरण के साथ प्रस्तुत किया गया है.
मनुवादी भारतीय मीडिया के समक्ष दलित मीडिया को खड़ा करने की सुगबुगाहट को भी जोरदार ढंग से उठाया गया है. दलित पत्रकारिता पर प्रकाश डालते हुए, इसे खड़ा करने के प्रयासों पर चर्चा किया गया है.
वर्षों से उपेक्षित दलितों के बराबरी के मसले को उठाते हुए बहस की संभावना तलाशी गयी है. बराबरी के लिए सरकारी प्रयासों पर विरोध और दलितों को मुख्यधारा से अलग रखने की साजिश को बेनकाब किया गया है.
सोशल मीडिया पर दलित विरोध को भी उदाहरण और तस्वीर के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है. दलितों को सरकार की ओर से दी जाने वाली सुविधाओं का विरोध करते हुए सोशल मीडिया पर दलितों के प्रति भ्रामक सामग्री को रखते हुए, समाज के उस वर्ग को बेपर्द करने की कोशिश की गयी है जो नहीं चाहता कि दलित आगे आये.
संजय ने समाज के सवालों को जोरदार, लेकिन सहज ढंग से रखने की सफल कोशिश की है.पुस्तक के लेखक स्वयं लम्बे समय से मीडिया से जुड़े हैं. ऐसे में पुस्तक के लेखों में मीडिया में दलितों और दलित सवालों की अनदेखी पर सशक्त तरीके से कलम चलाई है. भाषा काफी सहज व सरल है.
‘मीडिया में दलित ढूंढते रह जाओगे’’ के तमाम आलेख सवर्णो के खिलाफ जाते हैं. हालांकि लेखक ने “अपनी बात” में साफ लिखा है कि उनका मकसद किसी जाति-धर्म-संप्रदाय को निशाना बनाना नहीं है बल्कि, भारतीय मीडिया पर ऊंची जाति का कब्जा, जो शुरू से ही बरकरार रहा है उसे पाटते हुए बराबरी-गैरबराबरी के फासले को कम करना है.
पुस्तक मीडिया में दलित ढूंढते रह जाओगे
लेखक संजय कुमार
पृष्ठ संख्या एक सौ चार
मूल्य रु॰ 75/-( पचहत्तर रुपये)
प्रकाशक सम्यक प्रकाशन
32/3,पश्चिमपुरी,नई दिल्ली-110063
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