शालीन पटना जोन के डीआईजी हैं

पंजाबी मूल के बिहार कैडर के आईपीएस अफसर शालीन का यह आलेख सोशल मीडिया में काफी सुर्खियां बटोर रहा है. प्रकाश पर्व की शानदार सफला के बाद उन्होंने बिहार की मिट्टी से मिले अपने अनुभवों को कलमबंद किया है.

शालीन पटना जोन के डीआईजी हैं
शालीन पटना जोन के डीआईजी हैं
हाल ही में बिहार ने गुरु गोविंद सिंह जी महाराज की 350वीं जयंती के मौके पर उनके जन्म स्थल पटना साहिब में हुए प्रकाशोत्सव पर भारत और दुनिया भर से आए सिखों का स्वागत किया. बिहार काडर में एक पंजाबी अफसर और डीआईजी पटना की हैसियत से इस कार्यक्रम से मेरा जुड़ाव सिर्फ काम को लेकर ही नहीं, निजी तौर पर भी रहा. सम्मेलन सफल रहा और दुनिया भर से आए श्रद्धालु, विशेषकर सिखों ने कार्यक्रम की खुले दिल से तारीफ भी की. इनमें से कई लोग तो पहली बार बिहार आए थे और यहां के लोगों की मेज़बानी देखकर चकित रह गए. वैसे अगर वे किसी असली बिहारी को जानते होते तो इस मेहमान नवाज़ी को देखकर बिल्कुल भी हैरान नहीं होते.
 
कहीं दल नहीं गली तो बिहारी गैंग में
जहां तक बिहार और बिहारी से मेरे रिश्ते की बात है तो यह सिर्फ मेरे बिहार काडर में शामिल होने तक सीमित नहीं है. वैसे भी यह तो महज़ चांस की बात है कि सिविल सर्विस परीक्षा में मुझे जो रैंक मिली थी उसके बाद मुझे यह काडर मिल गया. मेरा और बिहार का रिश्ता तो बीस साल पुराना है जब रुड़की इंजीनियरिंग के फायनल ईयर में मैं ‘बिहार गैंग’ में शामिल हो गया था. उन दिनों रुड़की में सबकी नज़रें दिल्ली वालों पर रहती थीं जो न सिर्फ सबसे अच्छे कपड़े पहनते थे, बल्कि बातें भी वो GRE और CAT जैसी परीक्षाओं की ही करते थे. यह दिल्ली वाले छात्र ज्यादातर समय के बड़े पाबंद हुआ करते थे और खेल कूद में बहुत आगे थे. मैंने पहले साल उनके साथ उठना बैठना चाहा लेकिन न तो मैं उनकी तरह पढ़ाई में तेज़ था और न ही मेरी महत्वाकांक्षाएं कुछ ख़ास थीं. फिर उनके बाद ‘कानपुरिये’ और ‘लखनऊ’ वाले भी थे जिनकी बोली और मज़ाकिया अंदाज़ का कोई तोड़ नहीं होता. कैंपस में ही कुछ छात्र दक्षिण भारत और पश्चिमी भारत से भी आए थे और हां, एक्सचेंज प्रोग्राम के तहत कुछ विदेशी छात्रों ने भी कॉलेज की शान बढ़ा रखी थी लेकिन मेरी कहीं दाल नहीं गली.
 
मैं भटका हुआ लोफर
इन सबके बीच मुझ जैसा 20 साल का निकम्मा पंजाबी मुंडा जो पढ़ाई में ज़ीरो था, उसे बिहारियों के बीच बैठकर ही राहत और सुकून मिलता था. मैं किसी खेल में शामिल नहीं होता था, नाटक और साहित्य जगत से कोसों दूर रहता था, अमेरिका, एमबीए या सिविल सर्विस इनमें से कुछ भी मेरे प्लान का हिस्सा नहीं था – कुल मिलाकर एक भटका हुआ लोफर जो अपनी जिदंगी के धुंधले वर्तमान और बेरंग भविष्य के बीच झूल रहा था.
ऐसे में मैं बिहारी गुटों के बीच उठता -बैठता और वे मुझे ऐसा करने देते. उन्हें मेरा दिशाहीन होना या कम प्रतिभाशाली होना खलता नहीं था. अयोग्यता और अक्षमता को लेकर इनमें एक तरह की सहिष्णुता और संयम है जिसने शायद बिहार के विकास में रोड़ा डाला है लेकिन दूसरी तरफ बिहारी लोगों की यही खूबी उन्हें उदार भी बनाती है और असफल लोगों के लिए उनके दिल के दरवाज़े खोलती है (शायद बिहार का छठ त्यौहार दुनिया का एकमात्र उत्सव होगा जहां डूबते सूरज की पूजा की जाती है.) खैर, तो इस तरह मैं रुड़की के दिनों में इसी बिहार गैंग से चिपका रहा और उनके साथ बिताया वक्त उस संस्थान में मेरे सबसे यादगारों दिनों में से एक हैं.
  मजबूर किया सिविल सर्विसेज के लिए
कॉलेज खत्म हुआ और मैंने एक साल तक एक निजी कंपनी में मैनेजमेंट ट्रेनी की तरह काम किया लेकिन फिर कुछ अजीब हुआ. मेरे ज्यादातर बिहारी दोस्तों ने अपनी कैंपस से मिली नौकरी को विदा कहा और सिविल सर्विस परीक्षा की तैयारी में जुट गए, वो भी जिया सराय इलाके में जिसे एलेक्स हैली के शब्दों में ‘सपनों का डेरा’ कहा जा सकता है. मुझे भी कहा गया कि नौकरी छोड़ों और जुट जाओ सिविल सर्विस की तैयारी में. ज़रा सोचिए, एक लड़का जिससे रुड़की इंजीनियरिंग ठीक से नहीं हो पाई, उसे ऐसी परीक्षा में बैठने के लिए उकसाया जा रहा था जिसकी तैयारी में सबका तेल निकल जाता है. ऐसा कहा जाता है कि इस टेस्ट को तो सिर्फ मेहनती और पक्के इरादों वाला ही पास कर सकता है, वो भी तब अगर उसकी किस्मत अच्छी हो. रुड़की के चार सालों में मुझे तो ऐसा कोई गुण अपने अंदर नज़र नहीं आया, लेकिन पता नहीं क्यों मेरे बिहारी दोस्तों को लगता था कि मुझमें कुछ बात है!
खुद पर यकीन करना सिखाया
तैयारी के पहले और सबसे अहम महीने में मैं अपने बिहारी दोस्त राघवेंद्र नाथ झा और कुछ और लड़कों के साथ रहा, इसी दौरान मैं इस भूलभुलैया वाले इलाके में अपने लिए एक कमरा भी तलाश रहा था. यह मेरे दोस्तों का प्यार और प्रोत्साहन ही था जिसने इस औसत पंजाबी लड़के को खुद पर यकीन करना सिखाया. यूपीएससी की तैयारी में जुटे रहने के दौरान कई मोड़ ऐसे भी आए जब मेरा आत्मविश्वास पूरी तरह हिल जाता था और सोचता था कि बस अब और नहीं. लेकिन उस वक्त मेरे बिहारी गैंग ने मुझे डूबने से बचाया. उनकी जगह कोई ज्यादा दिमाग वाला आदमी होता तो मुझे कब का ‘निकल लेने’ के लिए कह चुका होता, कहता कि पढ़ाई में सिफर मुझ जैसे लड़के के लिए यहां तो कोई चांस ही नहीं है. लेकिन बिहारी की बात अलग है – अगर वो आपके साथ हैं तो फिर पूरे दिल से साथ हैं.
 
बिहार के साथ मेरा प्यार तब और बढ़ गया जब सफलतापूर्वक आईपीएस क्लियर करने के बाद मुझे बिहार काडर मिला. इसके बाद मैंने यहा कई साल काम किया और अलग अलग क्षेत्र से जुड़े लोगों से मिलना जुलना हुआ. मैं यह मानता हूं कि बिहार को बगैर अच्छे से जाने इसे बदनाम किया जाता रहा. जिस तरह एक खौफनाक बलात्कार केस के बाद उत्तर भारत के सभी पुरुषों को औरतों का दुश्मन नहीं कहा जा सकता, कावेरी मुद्दे पर बसों के जलने से सभी बैंगलोर वाले गुंडे नहीं हो गए, इसी तरह कुछ आपराधिक घटनाओं के आधार पर बिहार और बिहारियों को पूरी तरह आंका जाना भी सही नहीं है.
 
जिज्ञासु बिहार
एक ही बात को सब पर लागू करना खतरनाक है लेकिन मैं मानता हूं कि एक औसत बिहारी, दिमाग से तेज़, ईश्वर में यकीन रखने वाला शख्स होता है, जो नहाता और खाता धीरे है लेकिन मन से जिज्ञासु और सचेत होता है. यही जागरुकता और मजबूत प्रजातांत्रिक व्यवस्था की वजह से इस राज्य में और राज्यों की तुलना में ज्यादा बहस और एक दूसरे पर उंगली उठाने का चलन है. ऊपर से जातिगत व्यवस्था के हावी होने की वजह से यहां और जगहों के मुकाबले ज्यादा आत्म – समालोचना और खुद की निंदा की जाती है. जाति द्वारा खींची गई लकीरें बिहारियों को आपस में बाटंती हैं, एक दूसरे के प्रति ज्यादा आलोचक बनाती हैं लेकिन मेरा मानना है कि यही लकीरें हैं जो संकीर्ण और खुद को पोषित करने वाली क्षेत्र-सीमित राष्ट्रीयता को यहां पैर जमाने से रोकती है और यहां के लोग सिर्फ अपने राज्य को नहीं पूरे भारत को दिल से गले लगाते हैं.
 
मजदूरी के लिए गुरुग्राम या मुंबई जाने के लिए मजबूर बिहारी मजदूर हो या फिर बैंगलोर या चेन्नई में नौकरी करने वाला एक आईआईटी से पढ़ा बिहारी – इन्हें भी उतनी ही इज्जत और प्यार मिलना चाहिए जितना वे अपने राज्य में आने वाले लोगों पर बरसाते हैं. न भाषा विशेष का गुरूर, न क्षेत्रवाद और उप-राष्ट्रवाद – यही बातें इन्हें एक गौरवान्वित भारतीय बनाती है. आप किसी बिहारी को बड़ी ही सहजता से पुणे या किसी शहर के विकास पर गर्व से बात करते हुए देख सकते हैं. वह यह नहीं सोचता कि उसका पटना या भागलपुर तो पीछे रह गया. यह बात अलग है कि भारत को लेकर एक बिहारी की इस व्यापक सोच के पीछे की उदारता राज्य के बाहर ज्यादातर लोगों को समझ नहीं आती.
 
नजुमलहोदा – मोरे बिहारी दोस्त
बिहार के सतही और जल्दबाज़ी से किए गए आकलन में अक्सर इस जगह और यहां के लोगों की गर्मजोशी, प्यार और मेहरबानी का ज़िक्र नहीं किया जाता – खासतौर पर अगर आप यहां बाहर से रहने आए हैं. बिहार में हिम्मत वालों की कमी नहीं है. एक बिहारी फिर वो आम नागरिक हो या कोई आईपीएस अफसर, कभी भी हिम्मत नहीं हारेगा. मुझे याद है मेरे बिहारी दोस्त नजमुल होदा जो दरभंगा के हैं, किस तरह पुलिस ट्रेनिंग के दौरान वरिष्ठ अधिकारियों से भी तीखे और कड़वे सवाल पूछने से पीछे नहीं हटते थे. इसी तरह एक बिहारी पत्रकार ही एक ऐसा सवाल पूछने के लिए खड़ा हो सकता है जिसकी हिम्मत कोई और नहीं करेगा. सत्ता के खिलाफ होना आपको मंहगा पड़ सकता है लेकिन बिहार में नहीं. आपकी दलील और आपका रवैया कैसा भी हो लेकिन अगर आप किसी उद्देश्य के लिए अकेले ही किसी ताकतवर से भिड़ रहे हैं तो फिर आपको मिलने वाले समर्थन और समर्थकों के हुजूम की यहां कमी नहीं होगी.
 
माना की बिहारियों को कई तरह की सामाजिक और आर्थिक परेशानियों से दो चार होना पड़ रहा है लेकिन एक चीज़ जो उनसे कोई नहीं छीन सकता – वो है भारत के लिए धड़कने वाला उनका बड़ा सा दिल जिसमें दया है, दूसरों के लिए सम्मान है, खासतौर पर उनके लिए जो शायद सफलता की रेस में बहुत आगे नहीं जा सके या थोड़ा पीछे रह गए. एक बेहद ही आम सा जीवन जीने वाले शख्स के लिए भी यहां जगह और सम्मान है – जिंदगी में और क्या चाहिए?
एनडीटीवी़ॉटकॉम के लिए अंग्रेजी में लिखे इस लेख का अनुवाद  कल्पना ने किया है
 
(शालीन, पटना डीआईजी हैं. बिहार काडर के आईपीएस अधिकारी हैं और IIT रुड़की से कैमिकेल इंजीनियरिंग ग्रेजुएट हैं)

By Editor


Notice: ob_end_flush(): Failed to send buffer of zlib output compression (0) in /home/naukarshahi/public_html/wp-includes/functions.php on line 5427