राष्ट्रीय स्वयंसेवक सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने फिर कहा है कि देश में रहने वाले सभी लोग हिंदू हैं। दरअसल संघ से जुड़ी हिंदुत्व की पूरी फौज लंबे समय से समाज को धर्म के आधार पर बांटने और हिंदू समाज के मन में डर, भय एवं आशंका पैदा करने का अभियान चला रही है। उनकी ओर से बार-बार दुहराई जाती है कि अपने ही मुल्क में हिंदू उपेक्षा के शिकार हैं। वोट की राजनीति की वजह से मुसलमानों का तुष्टीकरण और हिंदुओं की उपेक्षा की जाती है। इसलिए देश हित में ज़रूरी है कि हिंदुत्ववादी समूह द्वारा समाज में फैलायी जा रही बातों को हम तथ्यों की कसौटी पर परखें एवं हकीकत को समझने-परखने की कोशिश करें, क्योंकि धर्म के आधार पर अपने देश का बंटवारा एक बार हमलोग कर चुके हैं।muslim

शिवानंद तिवारी, पूर्व सांसद

 

एक समाज के भीतर किसी ख़ास समूह को आखिर किस विशेष समूह से ख़तरा की आशंका हो सकती है? एक सामान्य समझ यह है कि बड़ी आबादी वालों से छोटी आबादी वाले समूह को ख़तरे की आशंका रहती है। अगर इस मुल्क की आबादी में हिंदुओं की संख्या कम होती, तो यह कहा या माना जा सकता था कि उन्हें बहुसंख्यक आबादी से ख़तरा है, या हो सकता है। हमारे देश में हर दस वर्ष पर आबादी की गिनती होती है। पिछली गिनती 2011 में हुई थी। इस गिनती के मुताबिक़ देश की कुल आबादी एक अरब, 21 करोड़ 19 लाख 3 हजार 4 सौ 22 थी। इनमें हिंदुओं की कुल आबादी 96.62 करोड़ और मुसलमानों की 17.22 करोड़ है। हिंदुत्व वाले 96.62 करोड़ हिंदुओं को 17.22 करोड़ मुसलमानों का भय दिखा रहे हैं। जबकि हिंदू समाज के प्रचंड बहुमत के सामने मुसलमान सहित अन्य अल्पसंख्यक समूह अपनी या अपनी संस्कृति, मज़हब, भाषा आदि की सुरक्षा को लेकर सशंकित रहते हैं, जिसे बहुत हद तक स्वाभाविक माना जा सकता है।

 

प्रतिनिधित्‍व का सवाल

दूसरी बात, जिसकी बार-बार दुहराई जाती है वह यह कि अपने ही मुल्क में हिंदू उपेक्षा के शिकार हैं। वोट की राजनीति की वजह से उनका तुष्टीकरण और हिंदुओं की उपेक्षा की जाती है। आखिर इस आरोप की सच्चाई क्या है? यह समझने के लिए सबसे पहले यह समझना होगा कि समाज में हम उपेक्षित किसको मानते हैं। दुनिया भर के मुल्कों में उपेक्षा का शिकार आबादी के उस समूह को माना जाता है, जिनका राजनीति और प्रशासन में उनकी आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व काफ़ी कम होता है। उचित प्रतिनिधित्व नहीं होने की वजह से उस आबादी की समस्याओं की न तो गंभीरता से सुनवाई हो पाती है और न उनका समाधान। हमारे यहां समाज का वह समूह उपेक्षित माना जाएगा, जिसका प्रतिनिधित्व देश की लोकसभा और नौकरशाही में आबादी के अनुपात में काफ़ी कम है।

 

आंकड़ों का सच

देश की आबादी में मुसलमान 14.23 फ़ीसद और हिंदू 79.8 फ़ीसद है। इस हिसाब से लोकसभा की 543 सीटों में आबादी के मुताबिक़ मुसलमानों का हिस्सा 75 सीट का बनता है। मौजूदा लोकसभा में मुसलमान सदस्यों की संख्या मात्र 22 (आबादी का 4.5प्रतिशत ) है। पहली लोकसभा से लगायत अब तक 1980 में अधिकतम, यानी 49 मुसलमान सदस्य लोकसभा मे पहुंचे थे। औसतन 30-35 सीटें मिलती रही हैं मुसलमानों को। उसका बाक़ी हिस्सा इसाई, सिख या बौद्ध नहीं, बल्कि हिंदू समाज ही ले लेता है। विडंबना है कि इसके बावजूद हिंदुत्ववादियों की फ़ौज हिंदू समाज में मुसलमानों के तुष्टीकरण का अफ़वाह फैलाकर उसे मुसलमानों के खिलाफ भड़काने का अभियान चलाती है।

 

प्रशासन में मुसलमानों की हिस्‍सेदारी

तुष्टीकरण के आरोप की असलियत का दूसरा नज़ीर मुल्क के प्रशासन में मुसलमान कहां खड़ा हैं या बाक़ी आबादी के मुक़ाबले उसकी हालत क्या है, इससे लगाया जा सकता है। मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक, और शैक्षणिक हालत का जायज़ा लेने के लिए मनमोहन सिंह सरकार ने 2005 में दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश राजिंदर सच्चर की अध्यक्षता मे एक समिति का गठन किया था। बीस महीना बाद 2006 के नवंबर में दाखिल उसकी रिपोर्ट के मुताबिक़ देश मे मुसलमानों की दशा दलितों और आदिवासियों से भी बुरी है। आईएएस में मुसलमान तीन फ़ीसदी, आईपीएस में चार फीसदी, सेना तथा सुरक्षा बल में 3.2 फीसदी, रेल में 4.5 फीसदी तो बैंकों मे 2.2 फीसदी हैं । यह सारा नज़ीर साबित कर रहा है कि किस प्रकार झूठ फैलाकर हिंदुत्व के ठेकेदार धर्म के आधार पर विद्वेष फैलाकर समाज को बांटने का अभियान चलाते हैं।

 

तथ्‍यों की गलत व्‍याख्‍या

दरअसल इस दफा भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने 2011 की जनगणना को जिस तरह जारी किया, उससे हिंदुत्ववादियों को मुसलमानों की आबादी दर में वृद्धि को मुद्दा बनाकर झूठा शोर मचाने का मौक़ा मिल गया। यह सही है कि मुसलमानों की आबादी का वृद्धि दर हिंदुओं से ज़्यादा है। प्रत्येक दस साल पर होने वाली जनगणना के मुताबिक़ 2001-11 के बीच हिंदुओं की आबादी की वृद्धि दर 16.8 फीसद थी, तो मुसलमानों की 24.6 फीसदी । अब सिर्फ इतना ही बताकर छोड़ दिया जाए तो यह शोर मचाने एक आधार मिल जाता है कि हिंदुओं के मुक़ाबले मुसलमानों की आबादी तेज़ी से बढ़ रही है। गृह मंत्रालय ने इस दफा यही किया। लेकिन इसके पूर्व की जनगणनाओं के साथ तुलनात्मक ढंग से देखा जाए तो स्पष्ट दिखता है कि हिंदू और मुसलमान दोनों की आबादी की वृद्धि दर में गिरावट आ रही है। बल्कि हिंदुओं के मुक़ाबले मुसलमानों के वृद्धिदर में घटाव ज़्यादा दिखाई देता है। जैसे 1981 से 1991 के बीच मुसलमानों की आबादी वृद्धि दर 32.9 फीसद थी तो हिंदुओं का 22.8 फीसदी । इसी तरह 1991-2001 में मुसलमानों का 29.3 फीसदी तो हिंदुओं का 20 फीसदी। इन पूर्ववर्ती आंकड़ों को तुलनात्मक ढंग से देखने के बाद बिल्कुल स्पष्ट है कि बावजूद इसके कि मुसलमानों की आबादी का वृद्धि दर हिंदुओं से ज़्यादा है, फिर भी उनकी आबादी का वृद्धि दर हिंदुओं के मुक़ाबले ज़्यादा तेज़ी से घट रही है।

 

भावनात्‍मक दोहन की साजिश

यह सबकुछ उल्लेख करने का मक़सद यह स्पष्ट करना है कि किस प्रकार असत्य का सहारा लेकर हिंदू समाज को हिंदुत्ववादी भीरू और कुंठित बना रहे हैं। इन लोगों की नज़र में देश की एकमात्र समस्या मुसलमान है। देश में इतनी ग़रीबी है। बेरोज़गारी की डरावनी समस्या है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। आज भी देश के कई इलाक़े में दलितों और आदिवासियों के साथ अमानवीय व्यवहार हो रहा है। महंगाई से लोग परेशान हैं। महिलाओं पर अत्याचार बढ़ता जा रहा है। बड़ी आबादी को पीने के लिए शुद्ध पानी नहीं मिल रहा है। पढ़ाई और इलाज दिन ब दिन महंगा होता जा रहा है। लेकिन हिंदुत्व वाले कभी इन सवालों पर अपना मुंह नहीं खोलते। असल में सांप्रदायिकता जैसे भावनात्मक मुद्दों के ज़रिए समाज को बांटकर ये उनलोगों की मदद कर रहे हैं, जो देश की मौजूदा हालत से अपना स्वार्थ साध रहे हैं।

————————-

 

shivanandलेखक शिवानंद तिवारी राज्‍यसभा के पूर्व सदस्‍य हैं। वे सामाजिक मुद्दों पर लगातार बोलते और लिखते रहे हैं। उनका यह आलेख जनसंख्‍या के आंकड़ों को नये सदंर्भ में देखने की कोशिश है।

By Editor

Comments are closed.


Notice: ob_end_flush(): Failed to send buffer of zlib output compression (0) in /home/naukarshahi/public_html/wp-includes/functions.php on line 5427