साम्प्रदायवाद और आतंकवाद के सियासी खेल से इतर मुसलमानों की बुनियादी समस्याओं को विमर्श का मुद्दा नहीं बनने दिया जाने पर चिंता जता रहे हैं आशुतोष
कई साल पहले मैंने एक पत्रिका में हिन्दुस्तान के मुसलमानों के बारे में एक लेख लिखा था। यह लेख आतंकवाद और मुस्लिम तबके की मानसिकता पर था। लेख में लिखा था कि वक्त आ गया है, जब मुस्लिम समुदाय को अपने अंदर झांकना चाहिए और अपनी तकलीफों के हल खुद खोजने चाहिए। मशहूर पटकथा लेखक सलीम खान साहब ने लेख पढ़ा। बाद में उन्होंने लिखा कि इस लेख ने उन लोगों के मुखौटे उतार दिए हैं, जो महज खुद के प्रचार के लिए संप्रदायवाद के खिलाफ निहायत नकली लड़ाई लड़ते हुए एक किस्म की शहादत के तलबगार नजर आते हैं। उन्होंने आगे लिखा, यह अफसोस की बात है कि इक्कीसवीं सदी में भी आम मुसलमान बाबर की जन्मभूमि में अपनी खयाली जड़ों को खोजना चाहता है। और मुगलों की हुकूमत के दिनों की वह जुगाली करता है, जबकि आज की हकीकत को कबूल करना चाहिए। वह आगे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि शायद तालीम की कमी की वजह से ये हालात बने हैं।
सलीम साहब की बातों पर मैं काफी सोचता रहा। मुसलमानों की हालत की पड़ताल करने वाली सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को खंगाला। सलीम साहब की बातों की तस्दीक यह रिपोर्ट बखूबी करती है। रिपोर्ट बताती है कि आजादी के इतने साल बाद भारतीय मुसलमानों की हालत दलितों व आदिवासियों से भी गई-गुजरी है। मुसलमानों में साक्षरता राष्ट्रीय औसत से काफी कम है। 25 फीसदी मुस्लिम बच्चे या तो स्कूल जाते ही नहीं या फिर पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं। सच्चर कमेटी के आंकड़े भयावह हैं। आईएएस में सिर्फ तीन प्रतिशत, आईएफएस में 1.8 प्रतिशत, आईपीएस में चार प्रतिशत मुस्लिम हैं। भारतीय रेलवे में 4.5 प्रतिशत मुस्लिम नौकरी पर हैं, जिसमें से 98.7 प्रतिशत निचले पदों पर हैं। यानी मुस्लिम अफसरों की संख्या काफी कम है। कुछ ऐसा ही हाल पुलिस में है। महज छह प्रतिशत कांस्टेबल इस समुदाय के हैं, स्वास्थ्य सेवाओं में 4.4 प्रतिशत और यातायात में 6.5 प्रतिशत मुस्लिम तबके के लोग नौकरी में हैं, जबकि मुस्लिम समुदाय कुल आबादी का तकरीबन 16 प्रतिशत है। यानी आबादी के हिसाब से सरकारी नौकरियों में मुस्लिम तबके का प्रतिनिधित्व निहायत कम है।
शिक्षा
राजनीतिक समाज की यह जिम्मेदारी थी कि वह इस कहानी को एक दूसरा मोड़ देता। दुर्भाग्य कि आज भी इसी कहानी को दोहराने की कोशिश जिंदा है और आज जब लोकसभा के चुनावों की पदचाप तेज होती जा रही है, तब इसी कहानी को नया रंग देने का प्रयास किया जा रहा है। कहीं पर यह चिंता नहीं दिखती कि इस रंग को बदला जाए। न मुस्लिम नेताओं को चिंता है और न ही तथाकथित सेकुलर नेताओं को। होना तो यह चाहिए कि मुस्लिम विमर्श को नया आयाम दिया जाए, सामाजिक-आर्थिक सोच को नया दायरा दिया जाए। मुसलमानों को यह नहीं बताया जा रहा है कि जब तक उनमें आधुनिक शिक्षा का प्रसार नहीं होगा, तब तक न तो उच्च नौकरियों में उनकी हिस्सेदारी बढ़ेगी और न ही उनकी आवाज कोई सुनेगा।
पूरी मुस्लिम राजनीति असुरक्षा के इर्द-गिर्द घुमा दी जाती है। फिर खौफ का ऐसा वातावरण बनाया जाता है, जिसमें वे एक राजनीतिक पार्टी को अपना दुश्मन समझते हैं और उस राजनीतिक जमात के खिलाफ अपना सियासी दोस्त खोजने लगते हैं। भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी के उदय ने इस असुरक्षा को और बढ़ाया है। बार-बार मोदी की याद को 2002 से जोड़कर मुस्लिम ध्रुवीकरण का खाका खींचा जा रहा है। इसमें कोई भी पार्टी अछूती नहीं है। उत्तर प्रदेश इस सोच की नई प्रयोगशाला बन गई है। मुजफ्फरनगर के दंगे इस सोच को नई नाटकीयता दे रहे हैं। अच्छा होता कि अखिलेश यादव की सरकार मुस्लिम समाज की बेहतरी का कोई ब्लू प्रिंट सामने रखती। पर ऐसा नहीं हुआ। भाजपा पहले से ही यूपी में थी। कल्याण सिंह के बाद से उसकी हालत खराब थी, पर अखिलेश सरकार बनने के बाद जिस तरह से सिर्फ और सिर्फ मुस्लिमों की बात की गई, उसने यूपी की फिजां को बिगाड़ा। पूरी कोशिश हुई कि किसी तरह मुस्लिम सवाल पर चुनाव दो ध्रुवीय हो जाए।
विभाजनकारी राजनीति
मोदी का हौआ खड़ा किया गया, ताकि समाजवादी पार्टी मुसलमानों को मसीहा लगे और प्रतिक्रिया स्वरूप हिंदू एकजुट हों। बीजेपी इस बात को समझ रही थी। उसने मुलायम की कोशिशों में अपने लिए अवसर तलाश लिया। उसने गुजरात के अमित शाह को उत्तर प्रदेश का प्रभारी बना दिया। अमित शाह प्रभारी बनते ही अयोध्या गए और राम मंदिर निर्माण की बात की। यह खबर फैलाई गई कि मोदी उत्तर प्रदेश में लोकसभा का चुनाव लड़ेंगे। यह भी कहा गया कि वह बनारस या लखनऊ या फिर कानपुर से पर्चा दाखिल करेंगे। फायदा दोनों का था। मुलायम चाहते, तो इस विमर्श को रोक सकते थे, लेकिन उन्होंने नहीं किया। उन्हें विकास की बात करनी थी, लेकिन बात सांप्रदायिकता की निकली। पर जिस तरह से मुजफ्फरनगर के दंगे हुए, उसने मुस्लिम समाज को झकझोर कर रख दिया। गुजरात के दंगे उसे समझ में आते हैं, लेकिन एक सेकुलर पार्टी के शासन में भी मुस्लिम सुरक्षित न रहें, तो वे यह सोचने के लिए मजबूर होते हैं कि कहीं उनका इस्तेमाल सिर्फ वोट के लिए तो नहीं हो रहा? मौलाना मदनी ने अकारण नहीं कहा था कि मुसलमानों का वोट लेने के लिए नरेंद्र मोदी का हौआ खड़ा किया जा रहा है।
हालांकि मदनी के निशाने पर कांग्रेस थी, पर इशारा साफ है। उसी तरह, राहुल गांधी भी मुजफ्फरनगर के संदर्भ में गुस्से को कंट्रोल करने की बात करते हैं। वह कहते हैं कि भाजपा हिंदुओं और मुसलमानों को लड़ाने की बात करती है और इस लड़ाई को वह मुजफ्फनगर के दंगे से जोड़ते हैं। वह कहते हैं कि दंगा पीड़ितों के संपर्क में आईएसआई है। इस ओर इशारा करते हैं कि सांप्रदायिकता आतंकवाद को जन्म देती है, लेकिन संदेश कहीं और चला जाता है। संदेश कि क्या मुस्लिमों का जिक्र हिन्दुस्तान की राजनीति में केवल दो संदर्भों में होगा? सांप्रदायिकता व आतंकवाद! क्या इससे अलग उनकी कोई पहचान नहीं है? कायदे से उनकी पहचान एक नागरिक की होनी चाहिए, लेकिन उनको चुनावी-वोट में तब्दील कर दिया गया और राजनेताओं को पता है कि जब तक मुस्लिम असुरक्षित हैं, वोट बैंक हैं। जब वे असुरक्षित नहीं महसूस करेंगे,वोट बैंक नहीं रहेंगे। और फिर उनका इस्तेमाल भी नहीं हो पाएगा। इसलिए सच्चर कमेटी की रिपोर्ट पर अमल नहीं होता और न ही कोई पार्टी इसके लिए आंदोलन करती है। आज जरूरत यह है कि मुस्लिम समाज स्थापित राजनीति के जुमलों के जाल में न फंसे। वह सीधे सवाल अपने सामाजिक और आर्थिक सरोकार का करे और जो पार्टी उसकी जरूरतें पूरी करने का वचन दे, वह उसको वोट दे। लेकिन क्या ऐसा होगा?
साभार हिंदुस्तान