एक ऐसे आईपीएस की आपबीती जिसे सिविल सेवा की परीक्षा देने के लिए एमटेक की पढ़ाई से निकाल दिया गया आईपीएस बनने पर पदोन्नति रोकी गयी पर वह लड़ता रहा कभी झुका नहीं.
मेरी माँ मुझे यह कहा करती हैं कि दुनिया में दूसरे लोगों के काम पता नहीं कब हो जाते हैं, लेकिन तुम्हारे काम होते हों या नहीं , ढिंढोरा हमेशा पिट जाता है.
बिलकुल सही कहती हैं और यह बात मैं शुरू से ही देखता आया हूँ- आईआईटी से ना जाने कितने ही लड़के सिविल सेवा परीक्षा में हर साल चयनित होते हैं पर शायद मैं अकेला ऐसा एम टेक विद्यार्थी रहा होऊंगा जो एम टेक के दौरान सिविल सेवा परीक्षा देने के कारण आईआईटी से निकाल दिया गया.
कारण यह था कि मुझसे मेरे प्रोफेसर ने पूछा कि जब बी टेक में तुम टॉपर थे तो एम टेक में कम नंबर क्यों आये और मैंने उन्हें सच-सच बता दिया कि मैं सिविल सर्विस की तैयारी कर रहा हूँ. यह बात उन्हें नागवार लगी और मैं आईआईटी से निकाल दिया गया. बोकारो घर चला आया पर ना तो निराश हुआ और ना ही इसपर कुछ खास सोचा.
हमारी नौकरी में ना जाने कितने अधिकारी स्टडी लीव पर कब और कहाँ-कहाँ जाते हैं और कब स्टडी से लौट आते हैं, पता भी नहीं लगता पर जब मैं स्टडी लीव पर गया तो वास्तव में इसमे काफी शोर-शराबा हुआ और तमाम लोग यह जान गए कि मैं आईआईएम लखनऊ में मैनेजमेंट पढ़ने गया हूँ. लोगों को स्टडी लीव चुटकी में मिलती है, दरख्वास्त दी और कुछ दिनों बाद मिल गयी. मेरे मामले में मुझे आईआईएम से लौटने के बाद ही स्टडी लीव मिल सकी- वह भी करीब दस मुकदमों के बाद.
इसी तरह आईएएस और आईपीएस अधिकारी कब सेवा में आते हैं और कब प्रोन्नत होते जाते हैं, कोई जान भी नहीं पाता. कल तक जो एसपी और डीएम थे, वे आज डीआईजी, आईजी और कमिश्नर हो गए हैं. यहाँ सभी अधिकारी प्रोमोशन को एक रूटीन प्रक्रिया के रूप में मानते और समझते हैं. पर नहीं, मेरे मामले में तो यह भी एक लंबी, बहुत लंबी प्रक्रिया की ही शक्ल अख्तियार कर चुका है.
सबसे मजेदार बात यह कि मैं अपनी ही धुन में मगन रहता हूँ. ना दैन्यम, ना पलायनम शायद मेरा भी सूत्र वाक्य है क्योंकि मर्ज ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता है मेरी दवा भी उसी रफ़्तार से बढती रहती है. मैं वास्तव में इस बात का बेहद शुक्रगुजार हूँ कि मुझे चाहे कैसी भी स्थिति हो, उसमे डटना, उलझना, रमना और उससे मुक़ाबिल होना बहुत अच्छा लगता है.
मैंने अपने आस-पास देखा है कि कई लोग थोड़ी सी गड़बड़ी पर निराशा के भाव लिए दिखना शुरू हो जाते हैं, पर मैं ऐसे अवसरों को अग्रिम परीक्षा और अपनी मेधा तथा क्षमता की वृद्धि के माध्यम के रूप में देखना पसंद करता हूँ.
हाँ, मेरी जो खराबी है वह यह कि मैं ना तो हथियार डालना पसंद करता हूँ और ना ही झुकना.
साथियों से विनम्रतापूर्वक कहूँगा कि मेरी बातों को स्व-प्रशंसा अथवा मूर्खतापूर्ण प्रलाप के स्थान पर मेरे हृदय से निकली सच्ची बात के रूप में ली जाए. वैसे यह भी सही है कि जब एक बार बात मुहं से निकल गयी तो इस संसार में किसी को कोई रोक भी नहीं है कि वह उसे किस रूप में ले और उसका क्या अर्थ निकाले. अतः मैं सिर्फ अपनी ओर से अपना निवेदन ही करूँगा, अर्थ निकालने या समझने की जिम्मेदारी आपकी.
संघर्ष भरा जीवन
इस पूरी भूमिका को मैं अपनी नवीनतम रिट याचिका के सन्दर्भ में देखना चाहूँगा. इस याचिका में यूपी के प्रमुख सचिव (गृह) एवं यूपी के डीजीपी द्वारा न्यायिक प्रक्रिया में कथित रूप से असहयोग करने के आरोप में उनके खिलाफ कार्यवाही करने के लिए इलाहाबाद हाई कोर्ट, लखनऊ बेंच में मांग की गयी है.
इस याचिका में तमाम तथ्य प्रस्तुत किये गए हैं जिनके अनुसार मेरे प्रोन्नति विषयक मामले में मा० कैट, लखनऊ बेंच में दायर याचिका में इन अधिकारियों द्वारा लंबे समय से न्यायिक प्रक्रिया में असहयोग किया जा रहा है. तथ्यों के अनुसार मा० कैट ने 09 अगस्त 2012 को इन अधिकारियों को अपना शपथ पत्र चार सप्ताह में दायर करने को कहा जिसे आज तक इनके द्वारा दायर नहीं किया गया है. याचिका के अनुसार मा० कैट ने 16 जनवरी 2013 को इस मामले से सम्बंधित सभी अभिलेख अगली सुनवाई से पूर्व प्रस्तुत करने को कहा लेकिन कई सुनवाइयों के बाद भी इस आदेश का पालन नहीं हुआ है.
अतः याचिका में तमाम अधिकारियों पर जानबूझ कर न्यायिक प्रक्रिया में रुकावट बनने की बात कहते हुए उनके खिलाफ नियमानुसार कार्यवाही की मांग की है.
यह तो हुई याचिका में कही गयी बात. इससे परे और इससे बहुत ऊपर हमेशा मा० न्यायालय का मत और उनका आदेश होता है जो सबों के लिए सर्वमान्य होता है. लेकिन इसके बाद भी मुझे वास्तव में अपनी इस फितरत पर खुशी होती है कि चुपचाप बैठ जाने या चीज़ों को जस का तस स्वीकार करने की जगह मैं हमेशा आवाज़ लगाने, अपनी बात जोरों से कहने और सामने आ कर खड़े होने की कोशिश अवश्य करता हूँ, भले इसमें मेरी हानि हो.
सच कहने का साहस
साथियों से निवेदन करूँगा कि जहाँ तक संभव हो आप भी आवाज़ लगाने और अपनी बात कहने का साहस और माद्दा लाएँ और हर चीज़ को लाभ और हानि से बहुत अधिक जोड़ने का प्रयास ना करें. इस मामले में मेरा स्पष्ट मानना है कि हर लाभ वास्तव में उतना बड़ा लाभ नहीं होता जितना उस क्षण दिखता है और हर हानि उतनी बड़ी नहीं होती जितनी कई बार कई लोग समझ लेते हैं.
कम से कम अपने मामले में तो मैं यही मानता हूँ. लगातार बैच दर बैच इस आधार पर कि मुझमे प्रोन्नति के लिए आवश्यक योग्यता का अभाव है, भले ही कई लोगों को यह लगता हो कि इसकी तो स्थिति बहुत बुरी होगी, मुझसे इसमें पहले से कहीं अधिक संघर्षशील और तगड़ा जुझारू बनने का रास्ता ही नज़र आता है.
लेखक उत्तरप्रदेश कैडर के 1992 बैच के आईपीएस अधिकारी हैं उनका कॉलम नियमित रूप से आप नौकरशाही डॉट इन पर पढ़ सकते हैं
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