देखिए, इस बार मुझे जन्माष्टमी और स्वाधीनता दिवस का अधिक उत्साह इसलिए नहीं था, क्योंकि एक तरफ़ व्यवस्था का शिकार होकर बड़ी संख्या में नागरिक मरते जाते हैं, दूसरी तरफ़ जीवित बचे नागरिक व्यवस्था से बेहतर की उम्मीद बांधे जिए जाते हैं।
-अभिरंजन कुमार, वरिष्ठ पत्रकार
मरने वालों के साथ मरा तो नहीं जाता, लेकिन लोग असमय अस्वाभाविक मृत्यु के शिकार न हों, यह सुनिश्चित करना भी सभी जीवित बचे लोगों का परम कर्त्तव्य और परम धर्म है। एक राष्ट्र के रूप में भी और एक नागरिक के रूप में भी हम सभी अपने इस परम कर्तव्य और परम धर्म से चूक रहे हैं।
हम सभी अपने फ़र्ज़ी धर्मों, जो इंसान के बनाए हुए हैं, उन्हें लेकर लड़ाई-झगड़े में मशगूल हैं और जो असली धर्म है, भगवान का बनाया हुआ, इंसानियत का धर्म, जिसे भगवान ने इंसान की रचना के साथ ही गढ़ दिया, उससे लगातार दूर होते जा रहे हैं। सवाल सिर्फ़ गोरखपुर में बच्चों की मौत का नहीं है, आज देश के हर अस्पताल में ग़रीब लोग इलाज के अभाव में मारे जा रहे हैं। लुटेरे अस्पतालों द्वारा लाशों तक को बंधक बनाए जाने की ख़बरें आती रहती हैं। अस्पतालों और डॉक्टरों द्वारा ग़लत और लालच-पूर्ण इलाज से लेकर अंग-चोरी, कामचोरी, लूटखोरी, कमीशनखोरी तक की घटनाएं हो रही हैं, जिनके चलते हर साल लाखों लोग ऐसी हत्या के शिकार हो रहे हैं, जिनका कहीं कोई रिकॉर्ड तक मौजूद नहीं है। यह एक ख़ौफ़नाक और हृदयविदारक स्थिति है।
जब ऐसी स्थिति हो, तब हमें किसी सरकार विशेष की आलोचना या समर्थन करने की राजनीति से ऊपर उठकर अपने नागरिकों की भलाई व जीवन-रक्षा के कारगर और सच्चे उपायों के बारे में सोचना चाहिए। आज हमारे दूसरे भाइयों-बहनों, माताओं-पिताओं, बेटे-बेटियों की जानें छीनी जा रही हैं, कल हमारी-आपकी जान से भी खिलवाड़ हो सकता है। ग़रीब होना अपराध नहीं है कि व्यवस्था हमें उसका दंड सज़ा-ए-मौत देकर देगी। अगर सही तरीके से कमाया हुआ धन हो, तो अमीर होना भी अपराध नहीं है कि अपनी अमीरी की वजह से किसी को हिंसा, लूटपाट और हत्या का शिकार होना पड़े।
आज अस्पतालों, थानों, अदालतों- हर जगह आम नागरिकों के लिए जानलेवा व्यवस्था कायम हो चुकी है। यहां तक कि स्कूलों में मिड डे मील खाकर बच्चे मर जा रहे हैं। आप भूले नहीं होंगे, जब बिहार में छपरा के धर्मासती गंडामन गांव के स्कूल में सरकारी मिड डे मील खाकर हमारे 23 नरेंद्र मोदी और रामनाथ कोविंद बचपन में ही दुनिया छोड़ गए थे। वह घटना भी गोरखपुर की घटना से कम हृदय-विदारक नहीं थी। इसी तरह, बिहार के मुज़फ्फरपुर, मोतिहारी, गया, जहानाबाद इत्यादि अनेक ज़िलों में भी हर साल इतने ही बच्चे इनसेफलाइटिस के हाथों मारे जा रहे हैं, जितने गोरखपुर में मारे जा रहे हैं।
इसलिए, हम इस बात से बेहद विचलित हैं कि सरकारी नीतियों, प्रयासों और उनके अमलीकरण में इतनी भारी कमियां व्याप्त हैं कि वह नागरिकों के लिए जानलेवा साबित हो रही हैं। भ्रष्टाचार, घूसखोरी, कमीशनखोरी आज बहुत बड़ी हत्यारी शक्तियां बन चुकी हैं।
अपनी-अपनी राजनीति चमकाने के लिए जाति और धर्म के नाम पर भी हर साल सैकड़ों-हज़ारों लोगों की हत्याएं करा दी जा रही हैं। यहाँ तक कि सीमा पर भी हमारे जवान अधिक मारे जा रहे हैं, क्योंकि देश की सुरक्षा के मामले में भी गन्दी राजनीति होती है और बर्दी से लेकर हथियार और हेलीकॉप्टर्स तक, टैंक से लेकर तोपों और लड़ाकू विमानों तक की खरीद तक में घोटाले होते हैं। बोफोर्स तोप से लेकर अगस्टा वेस्टलैंड हैलीकॉप्टर्स की ख़रीद तक में हुए घोटाले इस बात के जीते जागते प्रमाण हैं। मिग विमानों की लगातार हुईं दुर्घटनाएं और उनमें हमारे वीर सिपाहियों की मौतों को आप हत्या की श्रेणी में नहीं रखेंगे तो किस श्रेणी में रखेंगे? ग़लत नीतियां अपनाने, अलगाववादियों और आतंकवादियों के प्रति सहिष्णुता दिखाने, मानवाधिकारों का ढोल पीटने इत्यादि की वजह से हमारे जो अधिक जवान मारे गए, उन्हें हम व्यवस्था द्वारा की जाने वाली हत्याएं न कहें, तो क्या कहें?
जिन्हें राजनीति करनी है, करें
इसलिए, जिन्हें राजनीति करनी है, वे करते रहें। हमारी असली चिंता अपने नागरिकों की जान पर व्यवस्था द्वारा लगातार उत्पन्न किये जा रहे खतरों को लेकर है। जीवन से बड़ा कुछ भी नहीं। जीने के अधिकार से बड़ा कोई अधिकार नहीं। अगर हमारा यह अधिकार भी ख़तरे में है और प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष हत्या का ख़तरा हर जगह हर पल हमारे नागरिकों के सिर पर मंडरा रहा है, तो हम अपनी इस आज़ादी को बेहद सीमित मानने के लिए विवश हैं और हमारा उत्साह इससे प्रभावित होना निश्चित है।
गोरखपुर की घटना ने तो हमें स्वाधीनता दिवस के मौके पर सिर्फ़ नए तरीके से चिंतन के लिए मजबूर किया है, वरना समस्या सिर्फ़ गोरखपुर तक ही सीमित नहीं, बल्कि राष्ट्रव्यापी है और जितनी गोरखपुर में दिखाई दे रही है, उससे लाखों-करोड़ों गुना अधिक भयावह है। मेरा मानना है कि जीवित बचे लोगों को अस्वाभाविक रूप से मरे हुए लोगों की आत्मा की शांति के लिए गया और काशी नहीं जाना चाहिए, बल्कि सड़कों पर उतरकर शांतिपूर्ण आंदोलन करना चाहिए और तब तक करना चाहिए, जब तक कि व्यवस्था में बैठे लोग अपने नागरिकों की जानें लेना बंद न कर दें।
आज तो 60 मर जाएं, 160 मर जाएं, या 1600 मर जाएं, किसी की कोई ज़िम्मेदारी ही नहीं है। भाषण झाड़ा, आंसू बहाए, गुस्सा दिखाया, कड़ी कार्रवाई की चेतावनी दी, जांच का ढोंग किया, राजनीति चमकाई और मस्त हो गए। पस्त नागरिक जिस दिन अपने मस्त जन गण मन अधिनायकों को सुधरने के लिए मजबूर कर दें, मेरी राय में वही दिन असली स्वाधीनता का होगा। खेद है कि अभी हम लोग नकली स्वाधीनता दिवस मना रहे हैं!
मैं आतंकी नहीं
मैं कोई नक्सली नहीं, आतंकवादी नहीं… मैं अपने बेटे-बेटियों, भाइयों-बहनों, माताओं-पिताओं के शोक में डूबा हुआ एक आम भावुक नागरिक हूं इस देश का, इसलिए इस बार मैं स्वीधानता दिवस नहीं मना रहा। पहले मेरे लोगों की ज़िंदगियां सुरक्षित करने का वचन दो, फिर मैं सुनूंगा तुम्हारा भाषण, फिर मनाऊंगा स्वाधीनता दिवस!
वैसे भी हिन्दू संस्कृति यह कहती है कि शोक की घड़ी में त्योहार नहीं मनाए जाते। अगर आम हिन्दुओं के परिवारों में कोई शोक हो जाता है, तो एक साल तक सारे पर्व-त्योहार, शादी-ब्याह, मुंडन-उपनयन रद्द हो जाते हैं। अगर किसी त्योहार के दिन किसी परिवार में शोक हो जाए, तो उस परिवार के लोग आजीवन उस त्योहार को मनाना बंद कर देते हैं। इसलिए, चलते-चलते कुछ सवाल भी छोड़े जा रहा हूं-