पीसीआई के चेयरमैन मार्कंडेय काटजू का हर बयान विवादित नहीं होता. आज लिखे ब्लॉग में काटजू ने 22 साल पुरानी एक ऐसी घटना का जिक्र किया है जो उनकी संवेदनशीलता को दर्शाता है.
जब मैं इलाहाबाद हाइ कोर्ट में वकील था तो मेरे एक वकील मित्र हुआ करते थे- अफसर अली. वह मुझसे उम्र में दो-तीन साल बड़े थे. वह हर ईद पर मुझे और कुछ दूसरे दोस्तों को दावत पर बुलाते थे. डिनर बनाने की सारी जिम्मेदारी उनकी पत्नी खुद निभाती थीं. हम सालों-साल तक ईद पर उनके यहां जाते रहे लेकिन कभी मैंने उनकी पत्नी को नहीं दखा. वह पर्दे में रहती थीं. अफसर थोड़े कंजर्वेटिव थे.
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दुर्भाग्य से अफसर अली की मौत हो गयी. उस समय उनकी उम्र यही कोई 55-56 की रही होगी. यह 90 के दशक की बात है.
तब तक मैं हाई कोर्ट का जज बन चुका था. एक बार अफसर अली की पत्नी का संदेशा आया कि वह मुझ से मिलना चाहती हैं. वह मिलीं. उन्होंने बताया कि उनके चार बच्चे हैं. पति की मौत के बाद जिंदगी मुश्किल में हैं. एक भाई हो जो मदद को तैयार है. वह अपने घर आने को कहता है.
उनकी बात सुनने के बाद मैंने राय दी कि वह अपने भाई के घर न जायें. क्यंकि कुछ दिनों के बाद बहन भाई पर बोझ के रूप में हो जायेगी और इससे बहन को काफी पीड़ा होगी. मैंने उन्हें राय दी कि उनके लिए मैं ही कुछ काम दिलाता हूं. मैंने उनके लिए एक क्लास 3 पद पर काम दिलवा दिया और रजिस्ट्रार जनरल से यह कहा कि उन्हें लाइब्रेरी में काम दिलवा दें क्यंकि वहां काम का बोझ कम होता है.
यह मामला 20 साल पुराना है. अब बच्चे बड़े हो चुके हैं. बेटी-दामाद सब सेटल्लड हैं. दामाद दिल्ली में किसी कम्पनी में अधिकारी हैं.
अफसर की पत्नी उन बीस सालों से लगातार मेरे लिए रक्षाबंधन पर राखी भेजा करती थी, एक पत्र के साथ जिसमें लिखा होता था- धन्वाद आपने भाई का फर्ज निभाया. यह सिलसिला 20 सालों तक चला, तब मैं मद्रास हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस बन गया था.