विवादित तो मुरली मनोहर जोशी, कपिल सिब्बल भी रहे हैं, लेकिन स्मृति ईरानी हाल के वर्षों में सबसे विवादित केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री रही हैं। स्मृति की पृष्ठभूमि, निजी जिंदगी, शिक्षा, पीएम से नजदीकी, मंत्री के तौर पर उठाये गये हरेक कदम, गाहे- बगाहे दिया गया बयान और सत्ता शीर्ष के निकटस्थ होने की उनकी हनक- ठनक आदि अनेक कारण हैं, जिसने उन्हें सुर्खियों में बनाकर रखा।
निखिल आनंद वरिष्ठ पत्रकार व सामाजिक कार्यकर्ता
स्मृति का एक घोर मोदी विरोधी छवि से निकल कर एक कट्टर मोदी समर्थक के तौर पर उभर कर आना भी एक दिलचस्प सी बात लगती है। नरेन्द्र मोदी ने जब 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को एक बड़ी जीत दिलाई तो पार्टी के भीतर एक बड़े कद- फलक के नेता के तौर पर स्थापित हुये यानि एकबारगी मोदी की छवि मनोवैज्ञानिक तौर पर बीजेपी के चिरकालीक सबसे महान नेता के तौर पर बनती दिखाई दी। यही वो कालखंड है जब अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी भी मोदी के आगे सुर्खियों एवं तस्वीरों में भी उपेक्षित दिखने लगे। जाहिर है ऐसी छवि के साथ उभर कर जब नई सरकार का गठन हुआ तो मोदी की खूब चली और बीजेपी संगठन एवं आरएसएस की मनमर्जी के सभी लोगों को न तो जगह मिली और न ही पसंद के मंत्रालय मिले। मार्गदर्शक समूह के बीच लोकप्रिय सुषमा स्वराज विदेश मंत्री बनीं, लेकिन पिछले दो सालों में विदेश नीति के स्तर पर जो कुछ भी हुआ, उसका रत्ती भर श्रेय उन्हें न मिला। बल्कि हर जगह सुर्खियों में मोदी ही भारत के विश्वनेता के तौर पर छाये रहे। ऐसा माना जाता है कि मानव संसाधन मंत्री बनाने के वक्त संगठन व संघ दोनों के ऊपर भारी पड़ते हुये नरेन्द्र मोदी ने स्मृति ईरानी को चुना। लिहाजा मंत्रिमंडल गठन के वक्त सबसे ज्यादा सुर्खियों में वे रहीं।
चर्चा में रहे मोदी और स्मृति
सरकार बनने से लेकर अब तक के दो साल के समय अंतराल में दिल्ली और बिहार की धूल- धुसरित कर देने वाली हार से बचाव की मुद्रा में आने को बाद असम की जीत को मोदी के पक्ष चढ़ा- बढ़ाकर पेश किया गया तो अब उत्तर प्रदेश और पंजाब का चुनाव माथे पर खड़ा हो गया। इस बीच पूरी केन्द्र सरकार के सिर्फ दो लोग सुर्खियों में छाये रहते। एक, नरेन्द्र मोदी जब वे देश में चुनाव प्रचार कर रहे होते या फिर विदेश दौरों पर होते। इसके अलावा इन दो सालों में महंगाई की मार खायी देश की जनता पहले की तरह एक प्रकार से अपने पीएम को देखना- सुनना- उन पर बात करना भूल गई है। दूसरी, स्मृति ईरानी जो इन दो सालों में चाहे- अनचाहे अनेक कारणों से सुर्खियों में लगातार बनी रहीं। डिग्री विवाद, वेमुला विवाद, जेएनयू विवाद, आईआईटी कैन्टीन विवाद, काकोडकर विवाद, अंबेडकर-पेरियार ग्रुप विवाद, डीयू ग्रैजुएट कोर्स विवाद, जर्मन संस्कृत विवाद, डियर विवाद, मंत्रालय के अंतर्गत की गई नियुक्तियों को लेकर विवाद आदि अनेक मामलों के कारण स्मृति लगातार सुर्खियों में बनी हुई हैं। अब इन तमाम विवादों और मोदी-शाह एवं संघ के बीच अप्रत्यक्ष खींचतान में स्मृति मोहरे के तौर पर इस्तेमाल की जाती रहीं। हाँ! बीच- बीच में संघ को संतुष्ट करने के लिये उनकी बातों को मान लेना एवं अधिकतर मामलों में खुद की व मोदी के मनमाफिक काम करना ही स्मृति की रणनीति रही है। इसमें कई विवादों से जुड़ी बातें ऐसी हैं, जो कुछ संघ के दबाव के कारण हो गई, कुछ संघ के दबाव को कम करने की कोशिश में हुई और कुछ येन- केन- प्रकारेण स्मृति के न चाहते हुये भी संभव हुई। लेकिन मानव संसाधन मंत्री के तौर पर हुए सभी विवादों- मामलों की जिम्मेदारी स्मृति की स्पष्ट तौर पर बनती है।
संजय जोशी का बढ़ रहा दखल
यह भी बात काबिले – गौर है कि नवम्बर, 2015 में बिहार चुनाव की हार के बाद जब जनवरी 2016 में अमित शाह को बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के एक नये टर्म के लिये चुना गया तो सुर्खियों में ये बात भले न आई हो लेकिन मोदी- शाह की जोड़ी को इसके लिये मशक्कत करनी पड़ी थी। इससे पहले अमित शाह पार्टी अध्यक्ष के तौर पर राजनाथ सिंह का कार्यकाल पूरा कर रहे थे। लेकिन जब 5-6 महीने नये कार्यकाल के होने जा रहे हैं, तमाम अटकलों के बावजूद शाह ने अपने संगठन की नई टीम घोषित नहीं की है। इसके पीछे मोदी-शाह से आरएसएस का विवाद बताया- दिखलाया जाता है। इन दिनों मोदी-शाह के धुर विरोधी रहे संघ के चहेते संजय जोशी का सुर्खियों में आना भी गौर करने लायक बात है और माना जाता है कि आने वाले वक्त में संजय जोशी फिर से बीजेपी के राष्ट्रीय संगठन में महत्व के साथ काबिज हो सकते हैं। इन सबके लिये संजय जोशी और उनके लोगों की सक्रियता राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ी हुई दिखाई दे रही है, जिसे संघ का भी समर्थन है।
यूपी और पंजाब चुनाव का दबाव
उत्तर प्रदेश- पंजाब का चुनाव मोदी- शाह के लिये 2019 के पहले की सबसे बड़ी बाधा है जिसको पार करना एक विशालकाय चुनौती है। 5 जुलाई, 2016 का मंत्रिमंडल विस्तार स्पष्ट तौर पर 2017 में होने वाले राज्य विधानसभा के चुनावों के मद्देनजर किया गया है। देश के अंदरूनी हालात को नजरअंदाज करने एवं विदेश नीति को लेकर हाई- प्रोफाइल प्रोपोगंडा के बीच शिक्षा- कृषि- अर्थव्यवस्था से जुड़े सवालों से जुझते हुये जब नरेन्द्र मोदी ये मंत्रिमंडल विस्तार करने जा रहे थे तो उनका दबदबे वाला प्रभाव कुछ कम था, लिहाजा संघ के साथ विस्तृत बैठक कर सूची को अंतिम रूप दिया गया। इसी बैठक में यह फाइनल हो गया था कि संघ के चहेते प्रकाश जावडेकर देश के नये मानव संसाधन मंत्री बनेंगे।
शिक्षा पर संघ का शिकंजा
मंत्रिमंडल विस्तार के इस पूरे खेल में मानव संसाधन मंत्रालय सीधे आरएसएस के कोटे में चला गया है, जिसके तहत संघ ने अपने इस पसंदीदा मंत्रालय पर अपने चहेते को काबिज करवाया। इसमें स्मृति को न तो सजा देने जैसी बात है और न ही उनका ओहदा कम किया गया है। स्मृति तो सिर्फ मोदी बनाम संघ के शुरूआती अप्रत्यक्ष द्वंद्व में मोदी जी के आत्मसंतुष्टि के लिये मोहरा थी, लेकिन प्रकाश जावडेकर तो संघ का माहिर घोड़े हैं, जिनके शातिर खेल को पकड़ पाना किसी के बस में नहीं है। जावडेकर भले ही केन्द्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य होंगे, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि उन्हें मोदी से ज्यादा संघ से जानने- समझने, सुनने और पूछ कर आदेश पालन करने की जरूरत पड़ेगी।
बहुसंख्यक समाज की चिंता बढ़ी
इस पूरे प्रकरण में मोदी-शाह को संघ का प्रतिरोधी या विलोम धारा का मान लेना गलत होगा। क्योंकि ये सिर्फ एक मनोवैज्ञानिक तौर पर समानांतर चलने वाला संघर्ष है, जिसमें बीजेपी एक संगठन के तौर पर अमूमन नरम दिखाई देती है। वहीं आरएसएस एक संगठन के तौर पर काफी मुखर व आक्रमक है। लेकिन दोनों के कट्टर ब्राह्मणवादी- राष्ट्रवादी एवं मनुवादी- हिन्दूवाद एजेंडे को लागू करने की रणनीति है, जिसमें समाज के वंचित- शोषित, दलित- आदिवासी- पिछड़ों के सामाजिक न्याय व भागीदारी के सवाल के लिये कोई जगह नहीं है। देश का बहुसंख्यक आवाम – एसटी, एसटी, ओबीसी, अल्पसंख्यक समाज जाहिर तौर पर संशंकित है कि बीजेपी- संघ की आँख- मिचौली में जो बिगड़ेगा, उसकी भरपायी कई पीढ़ियों तक करना संभव नहीं होगा।