रामचंद्र शर्मा ने इस आलेख में नरेंद्र मोदी और उनके सहोदरों की बातों, वक्तव्यों और बयानों को सामने रखते हुए यह बताने की कोशिश की है कि कैसे आरएसएस की पाठशाला के लोग अफवाह फैलान व तिल का ताड़ बनाते हैं.
बात का बतंगड़ बनाना कोई मोदी से सीखे। आखिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पाठशाला के होनहार जो ठहरे। हों भी क्यों नहीं! अफवाह फैलाने की घुट्टी और तिल का ताड़ और झूठ को बेचने का जिस तरह का कौशल वहां सिखाया जाता है, उसकी बराबरी शायद ही कहीं और हो। कांग्रेस मुक्त भारत की बात करते हैं और अपनी पार्टी के एक-तिहाई टिकट कांगेस से आए लोगों और दागियों को देते हैं। वंशवाद को ललकारने का ढोंग करते हैं और उसी वंश के संजय गांधी के बेटे और उनकी पत्नी को अपनी पार्टी का टिकट देते हैं। जाति और धर्म से परे राजनीति का नाटक करते हैं पर बार-बार अपने को पिछड़ा बताकर पिछड़ी जातियों के वोट लेने का स्वांग रचने के साथ-साथ हिंदू प्रतीकों की राजनीति के सहारे अपनी नैया पार लगाने के लिए ओछी हरकत करने से भी बाज नहीं आते हैं।
नीच जात का मामला
मोदी की पतित भाषा पर प्रियंका गांधी की टिप्पणी को ‘नीच जात’ से जोड़ने की बद बतकही उनके व्यक्तित्व के खोखलेपन को ही उजागर करती है। प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की स्तरहीन भाषा और उसे जाति से जोड़ने की ओछी हरकत पर मायावती का पूछना था कि मोदी पहले यह बताएं कि वे किस जाति के हैं? उन्होंने यह भी पूछा कि जिसे वे नीची जाति कह रहे हैं, उसके लिए उन्होंने और उनकी पार्टी ने आज तक किया क्या है? मायावती ने यह भी पूछा कि राहुल गांधी के दलितों के घर हनीमून मनाने के लिए जाने संबंधी बाबा रामदेव के बेहूदा वक्तव्य पर बड़बोले मोदी क्योें चुप हैं? मोदी की लहर है या उसका हव्वा? पूर्वांचल में जाते-जाते यह कथित लहर जाति के भंवर में कहां उलझ कर रह गई। गुजरात मॉडल और विकास का नारा लगाने वालों के मंच पर राम की तस्वीर और बोल में राम-राज्य के खयाल फिर से क्योंकर आ गए?
मोदी के सहोदरों ने वेदों को भी कट्टरता से जोड़ने से परहेज नहीं किया। गहन अर्थवाले श्लोकों से भरे वेद प्रकृति, उसके विस्तार और रहस्य के वृत्तांतों को जानने की उत्कंठा से लबरेज विज्ञान की राह तो बनसकते हैं कूपमंडूकता के कदापि नहीं। कट्टरता से भला उनका क्या रिश्ता? वेदों से कट्टरता सीखने की सलाह देने वाले तोगड़िया उसका अनर्थ कर कौन-सी संस्कृति के वाहक बन रहे हैं? उन्होंने वेद पढ़े भी हैं या यह भी उनकी पंथी पाठशाला से सीखे गुर का प्रदर्शन है?
दलित और हनिमून
उधर मोदी को प्रधानमंत्री बनाने को उतावले कथित बाबा रामदेव मर्यादा की सारी सीमाएं लांघे जा रहे हैं। खरबों की संपदा के जाजम पर बैठे इस योगी बाबा के कालेधन के अभियान की असलियत देश के सामने आ चुकी है। महंत चांदनाथ के चुनाव प्रचार के दौरान कालेधन पर उनका दोगलापन और अब दलित और महिलाओं के संबंध में शर्मसार करने वाले बोल उनके संकीर्ण सांमती सोच को सबके सामने ले आए हैं। राहुल गांधी के दलितों के घर हनीमून मनाने जाने संबंधी वक्तव्य में उनकी भाषा दलित की बेटी या औरत के भोग की वस्तु होने को रेखांकित करती है। उनके सोच में दलित की औरत या बेटी केवल भोग्या है। दलित के यहां जाने का अर्थ उनकी औरतों के भोग से लगाने वाले इस कथित ‘बाबा’ से कोई क्या सीख सकता है! ऐसे ही समाज के कथित ‘बापुओं’ के कुकर्मों के वास्तविक धारावाहिक हमारे सामने आ रहे हैं। मोदी के समर्थन में भारत स्वाभिमान और संस्कृति की रक्षा का झंडा उठाए फिरते ये बाबा किसका स्वाभिमान बचा रहे हैं और कौन-सी संस्कृति को पुख्ता कर रहे हैं, हमें समझ लेना चाहिए। बकौल आशीष दाधीच ‘अंधकार तो एक अवस्था है। उजाला मन में होना चाहिए।’ जिसके मन में ही मैल है, वहां उजाले की आस अर्थहीन है।
जनसत्ता से साभार