बिहार की राजनीति मुद्दों के संकट से जूझ रही है। मुद्दा न सत्ता पक्ष के पास है और न विपक्ष के पास। विचार और धारा न इधर है, न उधर। जाति की गंगोत्री भी भरोसे के लायक नहीं रही। पिछड़ों के वोट से सवर्ण जीतता है और सवर्णों के वोट से गैरसवर्ण। अखबारों का राजनीतिक पेज बयानों से पटा रहता है। शब्दों की मर्यादा न इधर है, न उधर है।
बिहार ब्यूरो प्रमुख
ऐसे माहौल में भाजपा विधानमंडल दल के नेता सुशील मोदी नया मुद्दा बन गये हैं। अपनी पार्टी के लिए भी और दूसरी पार्टियों के लिए भी। सत्तारूढ़ जदयू मोदी के नाम पर ही अपने तीर पर ‘सान’ (धार) चढ़ा रहा है। यदाकदा लालटेन से भी मोदी के नाम पर किरोसिन जुगाड़ रहा है। उधर भाजपा का अंतर्विरोध भी मोदी के आसपास सीमट गया गया है। प्रवासी बिहारी शत्रुघ्न सिन्हा भी उपचुनाव में पार्टी की हार का ठीकरा मोदी के माथे पर फोड़ कर मुम्बई रवाना हो गए। भाजपा में मुख्यमंत्री बनने का सपना पालने वाले चंद्रमोहन राय, सीपी ठाकुर, हरेंद्र प्रताप, प्रेम कुमार, सत्यनारायण आर्य जैसे नेता भी सुशील मोदी पर हमला कर रहे हैं।
आखिर सुशील मोदी अचानक केंद्र में कैसे आ गए। इस संबंध में भाजपा के ही एक वरीय नेता का मानना है कि सुमो का विरोध करने वाले लोग उन्हें ही ताकतवर बना रहे हैं। क्योंकि विरोध का न कोई वैचारिक आधार है और न नीतिगत प्रतिबद्धता है। विरोध करने वाले निजी महत्वाकांक्षा की वजह से नाराज हैं। विरोधी दल स्वाभाविक रूप से मजबूत नेता पर हमला करते हैं और यह निर्विवाद है कि सुमो ही पार्टी के मजबूत नेता हैं।