मोदीजी! सेक्युलरिज़म का मज़ाक उड़ाते-उड़ाते आपने प्रधानमंत्री नामक संस्था को मज़ाक का बना दिया है

प्रधानमंत्री के नाम खुले खत में जयंत जिज्ञासु ने  देश में बढ़ती हिंसा, नफरत व उत्तेजना के लिए उनके भाषण-व्यवहार और उनके अंध समर्थक टीवी पत्रकारों की उन्मादी एंकरिंग को जिम्मेदार ठहराते हुए उन पर दर्जनों सवालों की बौछार कर रहे हैं.

प्रधानमंत्री के नाम खुले खत में जयंत जिज्ञासु ने  देश में बढ़ती हिंसा, नफरत व उत्तेजना के लिए उनके भाषण-व्यवहार और उनके अंध समर्थक टीवी पत्रकारों की उन्मादी एंकरिंग को जिम्मेदार ठहराते हुए उन पर दर्जनों सवालों की बौछार कर रहे हैं.

प्रिय प्रधानमंत्री जी,
आप थोड़ा अपनी वाणी पर संयम रखें। आप 19 जीत जायें या मुमकिन है कि 24 भी (वैसे यह तभी संभव है जब ईवीएम में छेड़छाड़ हो), पर जो नुक़सान इस देश का हो रहा है, उसे आने वाले प्रधानमंत्री भी भर नहीं पायेंगे। पिछले बरस राजस्थान में कुल्हाडी से एक व्यक्ति को काट देने की जो घटना हुई, और अभी बुलंदशहर में जिस तरह से एसएचओ की नृशंस हत्या की गई, वो किसी इंसान की हत्या मात्र नहीं है, बल्कि सामाजिक सद्भाव की हत्या है।  याद रखिएगा प्रधानमंत्री जी, जो नफ़रत का बीज बोया जा रहा है और आपके भाषणों की उसमें जो भूमिका है; उसका कोई ‘तटस्थ’ इतिहासकार भी बहुत निर्मम मूल्यांकन करेगा, वो ममत्व के कण आख़िर कहां से ला पाएगा!

नफरत, हिंसा, उत्तेजना

ख़याल रहे, जिस-जिस ने इस देश में आग लगाई है, एकाध अपवाद छोड़कर सबका बड़ा ही दु:खद अंत हुआ है, अटल जी बरसों से मृत्युशय्या पर पड़े रहे और आडवाणी जी की मन:स्थिति से हर कोई वाकिफ़ है। जोशी जी स्थायी मौन में चले गए हैं। सबने इस देश को तोड़ने का बीड़ा उठा रखा था। तो, आप यह भ्रम मत पालिएगा कि आप अपवाद ही हों। सब यहीं रह जाएगा। रहम कीजिए इस देश पर, बख़्श दीजिए इस समाज को। आप चले जाएंगे आग लगाकर, पर बुझाने वाले पानी कहां से लाएंगे? इंसानियत के कुएं में कूड़ा डलवाकर आपने ढंकवा दिया है। अफ़सोस कि आज आपको डांटने के लिए संसद में कोई चंद्रशेखर, कोई भूपेश गुप्त, कोई मधु लिमये नहीं है, जिनकी डपट आपके गुरुदेव द्वय भी सर झुका कर सुन लेते थे, और आंशिक ही सही, अमल में लाने का भरोसा तो दिलाते थे। आपने तो संसद को ही निलंबित अवस्था में डाल दिया है जिसके साथ जनहित के मुद्दे हवा में लटके हुए हैं। अपने ‘मन की बात’ को आपने संसदसत्र का पर्याय या स्थानापन्न बना दिया है। यह ठीक नहीं कर रहे आप, प्रधानमंत्री जी।
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एक तरफ आप मौनव्रत साधे रहते हैं, दूसरी तरफ ‘मनोरोगी’ हत्यारे ‘राजकीय संरक्षण’ के बल पर तांडव करते रहते हैं। हिंदुस्तान की सारी गायों को आप अपने प्रधानमंत्री आवास में रख लें या गुजरात में अपने मित्र उद्योगपतियों को दे दें, प्रबंधन में माहिर अपने अध्यक्ष से कहें कि अडानी या अंबानी के घर बांध आएं, कुछ तो व्यवस्था करें। नहीं चाहिए हमें गाय-माल। इन गायों ने हमारे जानमाल की बहुत क्षति कर दी है। निरीह, निरपराध लोगों का जीना हराम कर रखा है। अलौली के मेरे गांव स्थित घर में चार गायें हैं, आप बिहार भाजपा के अपने अध्यक्ष नित्यानंद राय से कहें कि वो हमारे खूंटे से खोलकर ले जाएं। कुपोषण का शिकार हमारा परिवार बिना दूध के भी स्वस्थ रह लेगा, पर अपने अक़लियत भाइयों-बहनों का ख़ून होते नहीं देख सकते।

टीवी पत्रकारों की उन्मादी एंकरिंग

दस-दस गाय सरदाना-चौधरी-अंजना-श्वेता-चित्रा-रुबिया-चौरसिया-रजत-गोस्वामी-चौरसिया, आदि के यहाँ बंधवा दीजिए। यही लोग गोभक्त भी हैं और देशभक्त भी, मुल्क की समझ बस इन्हीं लोगों के पास है। वो जो गांव में इन चिल्लाने वाले एंकरों के एजेंडे से बेख़बर अमन-चैन से रहना चाहते हैं;  वो सब ‘जाहिल’ हैं और आपके ‘नेशन फ़र्स्ट’ के प्रोजेक्ट में बाधक हैं। मिटाना चाहें, तो मिटा दें इन्हें अपनी इमेजिनेशन से, पर इतनी बेरहमी से घुटा-घुटा कर इन्हें जीते जी क्यों मार रही है आपका कट्टर समर्थक होने का दावा करने वालों की टोली? क्या आप इतना सब देखने के बाद भी चैन की नींद सो लेते हैं? माफ़ कीजै कि बहुतों को इंसोमनिया हो गया है, पर दूर-दूर तक कोई राहत और हल नज़र नहीं आते।
प्रधानमंत्री जी, आपके आने से जो सबसे बड़ा नुक़सान इस जनतंत्र को हुआ है, वो ये कि पहली बार लोगों ने प्रधानमंत्री को गंभीरता से लेना छोड़ दिया है। ऐसा तो देवगौड़ा जिन्हें झूठे ही कमज़ोर प्रधानमंत्री के रूप में प्रचारित किया गया; के साथ भी नहीं था। आज लोग चुनाव आयोग पर भरोसा नहीं कर पा रहे हैं, यह कोई अच्छी बात तो नहीं। लोगों ने न्यायपालिका तक की मंशा पर संदेह करना शुरू कर दिया है। ऐसा मत कीजिए प्रधानमंत्री जी।
सेक्युलरिज़म का मज़ाक उड़ाते-उड़ाते आपने ख़ुद को ही नहीं, प्रधानमंत्री नामक संस्था को मज़ाक का विषय बना दिया है। यह सब बहुत दु:खी मन से आपके प्रति बिना किसी गुस्से के आज कह रहा हूँ। ख़ुद से नाराज़ हूँ।
नशेमन ही के लुट जाने का ग़म होता तो क्या ग़म था
यहां तो बेचने वालों ने गुलशन तक बेच डाला है।
भवदीय,
जयन्त जिज्ञासु

By Editor


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