सुप्रीमकोर्ट के एक रिटार्यड जज द्वारा यौन शोषण की पूरी दास्तान एक महिला वकील ने लिखी है. अंग्रेजी ब्लॉग ‘जर्नल ऑफ इंडियन लॉ ऐंड सोसाइटी ‘ का हिंदी अनुवाद आप भी पढ़ें-
-स्टेला जेम्स का यह ब्लाग 6 नवम्बर को छपा है-
‘अक्सर जिन बातों को लिखना सबसे मुश्किल होता है जो सबसे ज्यादा जरूरी होती हैं। ये तब और भी अहम हो जाता है जब आपके इर्द-गिर्द ज्यादा पढ़े-लिखे लोग इस बारे में बहुत कुछ कह चुके हैं, लेकिन आपका खुद का अनुभव ऐसा नहीं होता कि आप उन बातों में खुद को सहज महसूस करें।
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महात्मा गांधी ने एक बार कहा था- मेरे पास तर्क से ज्यादा ताकतवर चीज है, उसे अनुभव कहते हैं। इन्हीं शब्दों के चलते मेरे लिए ये लेख अहम है। सिर्फ मेरा अनुभव नहीं, बल्कि मुझ पर जो बीता वो मौजूदा वक्त में जिस मुद्दे पर सबसे ज्यादा बात होती है उसके लिए अहम है।
दादा की उम्र के जज
पिछले दिसंबर में देश में महिलाओं से जुड़ा आंदोलन उफान पर था। महिलाओं के खिलाफ अत्याचार के खिलाफ जैसे पूरा देश एक साथ खड़ा हो गया। सरकार के रवैए के प्रति भी लोगों में बहुत गुस्सा था। ये दुर्भाग्य ही है कि उस आंदोलन के दौरान ही मुझ पर वो सब बीता। मैं तब दिल्ली में ही थी, सर्दी की छुट्टियों के दौरान इंटर्नशिप कर रही थी। पुलिस बैरिकेड को चकमा देते हुए मैं बेहद ही प्रतिष्ठित सुप्रीम कोर्ट के जज के पास पहुंची। ये जज हाल ही में रिटायर हुए हैं। मैंने आखिरी सेमेस्टर से पहले उनके अंडर में काम किया था। मेरी मेहनत का फल मुझ पर यौन हमला करके दिया गया। इस हमले में शारीरिक तौर पर मुझे बहुत चोट नहीं पहुंची, लेकिन इससे कम भी नहीं हुआ। उस बुजुर्ग की उम्र मेरे दादा के बराबर है। मैं इस बारे में विस्तार से नहीं जाना चाहती, लेकिन कमरे से निकलने के बाद लंबे वक्त तक मुझ पर इसका असर रहा और अब भी है।
हादसे का असर
तो इस वाकये का मुझ पर क्या असर हुआ? समाज का एक परिपक्व सदस्य होने के नाते मैं उस वाकये से जल्द ही उबर गई। लेकिन मुझे चिंता इस बात की हुई कि मैंने उस हालात को मंजूर कर लिया जिसे स्वीकार नहीं करना चाहिए था। मैं जितना इस बारे में सोचती हूं, मुझे ऐहसास होता है कि अपने उस अनुभव के बारे में सोचने या कहने की भी हिम्मत ना जुटा पाने के चलते मैं कितना परेशान रही। उस वाकये का मुझ पर भीतर तक असर हुआ…मुझ में थोड़ा गुस्सा भी था लेकिन उस आदमी के लिए कड़वाहट लगभग नहीं थी। मैं बड़े सदमे में थी, मुझे इस बात की तकलीफ थी कि जिस शख्स की मैं इतनी इज्जत करती थी उसने ऐसा किया। मेरी सबसे तीखी प्रतिक्रिया दरअसल मेरी तकलीफ ही थी। मेरे लिए ये नई तरह की प्रतिक्रिया थी। या तो मैं उसे उसकी गलतियों को समझते हुए माफ कर देती, उसे एक अच्छा इंसान मानती रहती या फिर खुद को इस तरह का वाकया स्वीकार ना करने के लिए तैयार करती।
तत्काल प्रतिक्रिया नहीं देने का दुख
मेरी ये प्रतिक्रिया उस वक्त जिस तरह का आंदोलन देश में चल रहा था उसके बिल्कुल उलट थी। मैं ये नहीं कह रही कि उस वक्त महिलाओं का गुस्सा गलत था लेकिन मुझ में ये भावना बढ़ती चली गई कि मेरे पास उस जज की मजबूती के साथ निंदा करने या फिर मेरे अपने उसूलों को धोखा देने के सिवाय कोई चारा नहीं था। मेरा ये भ्रम क्यों था। अगर जिस महिला के साथ अत्याचार हआ है उसकी बात को ना समझा जाए तो और मुश्किल होती है। महिला अधिकारों की बात करने वाले यौन शोषण का शिकार हुई महिलाओं के बारे में ऐसे, बात करते हैं जैसे उसी की गलती हो। मुझे भी ऐसी ही गलती का ऐहसास हो रहा था लेकिन ये ऐहसास यौन हमला होने का नहीं, हमले के बाद मजबूती के साथ प्रतिक्रिया नहीं देने पर था।
पांच साल तक कानून की पढ़ाई ने मुझे हर समस्या के हल के लिए कानून की तरफ देखना सिखाया है। मुझे पता था कि कानून बहुत कमजोर है…जज के खिलाफ कानूनी लड़ाई शुरू ना कर पाने के बाद मुझे बहुत कायराना महसूस होता रहा। मैं बहुत कमजोर महसूस करती रही। हालांकि मुझ में अब भी उस बुजुर्ग के लिए कोई दुर्भावना नहीं है। मैं उनका जिंदगी भर का काम और इज्जत कठघरे में नहीं खड़ा करना चाहती। लेकिन इसके साथ ही मेरी ये भी जिम्मेदारी है कि दूसरी लड़कियों को वैसे हालात का सामना ना करना पड़े। लेकिन मुझे इसका कोई उपाय नजर नहीं आता। तमाम बहस, आंदोलन, नए कानून के बावजूद मुझे कोई हल नजर नहीं आता। इसने मेरी बेबसी बढ़ा दी है।
कहते हैं वक्त के साथ सारे जख्म भर जाते हैं। मेरे सबसे मुश्किल वक्त में मेरे करीबी दोस्त की संवेदनहीनता ने मुझे उस वाकये पर हंसने के लिए मजबूर कर दिया जिसने मुझे सबसे ज्यादा तकलीफ दी थी। मेरा सिर्फ एक सवाल है- यौन हमले के ऐसे मामले में क्या हम गुस्से के आगे जाकर भी सोच सकते हैं या फिर उस हालात को झेलते हुए अपनी भावनाओं को, अपनी पीड़ा को मंजूर कर लें।’