लोकतंत्र में सरकार जवाबदेही से बचने लगे तो यह खतरनाक भविष्य और अशांति को बढ़ावा देने के समान है. खबरें आ रही हैं कि डीएसपी हत्याकांड में आरोपित राजा भैया का नाम एफआईआर में शामिल नहीं किया गया है.
जबकि डीएसपी की पत्नी परवीन आजाद ने तहरीरी बयान में उन्हें नामजद अभियुक्त बनाया था.
पत्रकार एलएन त्रिपाठी के अनुसार डीएसपी जियाउल हक की हत्या के बाद पुलिस द्वारा दर्ज कराई एफआइआर में न राजा भैया का नाम है और न ही उनके आसपास के किसी बंदे का.
ऐसे में अखिलेश सरकार के घरियाली आंसू और संदेहस्पद मंसूबे का पता चलता है. एक तरफ उनकी सरकार मंत्री राजा भैया को इस्तीफा दिलवाती है और दूसरी तरफ तहरीरी बयान के उलट एफाईआर से राजा भैया का नाम हटाती है, यह जनता के साथ धोखा और राजा भैया को बचाने का मंसूबा लगता है.
अखिलेश सरकार से जनता इसका हिसाब तो चुनावों के समय ही लेगी, लेकिन फिलहाल यह स्पष्ट होता जा रहा है कि उनकी सरकार कुंडा के आतंक के रूप में बदनाम राजा भैया के दबाव या किसी लोभ का शिकार होती जा रही है.
अखिलेश यादव को सोचना होगा कि लोकतंत्र में सरकारों का वजूद लोकशक्ति से होती है न कि किसी व्यक्ति विशेष से. बहुत जल्द अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी को चुनावों का सामना करना है. अगर उनकी सरार उत्तर प्रदेश की जनता को किसी खास आदमी की कीमत पर इंसाफ देने से पीछे हट गयी तो उन्हें गफलत में नहीं रहना चाहिए कि जनता सब खामोशी से देखती रहेगी. लोकतंत्र में जनता को सबक सिखाने का पूरा अधिकार है.
लेकिन सब बातों के बावजूद जनता को यह उम्मीद है कि अखिलेश सरकार इंसाफपसंदी से काम लेगी.
हांलांकि पिछले एक साल से जबसे उनकी सरकार बनी है, राज्य में आठ-आठ साम्प्रदायिक दंगे हो चुके हैं. किसी सरकार के एक साल के कार्यकाल के मूल्यांकन के लिए आठ दंगो नाउम्मीद ही करते हैं. नाउम्मीदी की हद तो अब हो चुकी है जब शहीद डीएसपी जियाउल हक के आरोपी हत्यारों का नाम एफआईआर में शामिल नहीं किया गया है.
दूसरी तरफ इस मामले में राज्य का पुलिस नेतृत्व भी जबर्दस्त संदेह और निकम्मेपन के घेरे में है. हत्या के चार दिनों बाद भी पुलिस न तो डीएसपी की पिस्टल बरामद कर सकी है और न ही वह गोली जो उनकी शरीर में लगी थी. पुलिस तो उस दिन से संदेह के घेरे में है जब डीएसपी को गोली लगने की हालत में वहां पर मौजूद जवान उन्हें छोड़ कर भाग खड़े हुए थे.
अखिलेश सरकार अपनी साख बचाना चाहती है तो उसे इंसाफपसंदी से काम लेना ही होगा. वरना किसी आरोपी को बचाने के पहले उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि उसे अंतत: जनता के प्रति ही जवाबदेह रहना है.