पटना, जनवरी। अपनी आंतरिक शक्तियों और सौंदर्य के कारण हिंदी समग्र संसार में फैल रही है। विदेशों में इसका कोई अवरोधक नही है। हिंदी के विकास में देश की अपेक्षा विदेशों में इसकी गति अधिक तीव्र है। हिंदी के समक्ष जो बाधाएँ है वह भारत में ही है और यह किसी और के कारण नही, उनके कारण से है जो अपने को हिंदी वाले कहते हैं। भारत में जिस दिन से राष्ट्रभाषा हिंदी को राष्ट्रीय–ध्वज सा भाव और सम्मान मिलने लगेगा,हिंदी उसी दिन संसार की प्रथम भाषा बन जाएगी।
यह बातें आज यहाँ बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन में ‘विश्व हिंदी दिवस‘ के अवसर पर आयोजित समारोह एवं कवि–सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए, सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। डा सुलभ ने कहा कि, वर्ष १९७५ की १०वीं जनवरी को नागपुर के वर्धा में आयोजित प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन में, जिसकी स्मृति में प्रत्येक १० जनवरी को विगत २००६ से ‘विश्व हिंदी दिवस‘ मनाया जाता है, भारत के एक महान क्रांतिकारी संत विनोबा भावे ने कहा था कि, हिंदी में वे सारे तत्त्व मौजूद हैं जिनकी बदौलत वह विश्व की भाषा बन सकती है। उन्होंने कहा कि, हिंदी की आत्मा हमारे उस वैदिक विचारों में बसती है, जिसमें हमने ‘वसुधैव कूटुंबकम‘ का उद्घोष किया। हिंदी में मनुष्यों को जोड़ने की अद्भुत क्षमता है, जिसके बल पर यह संपूर्ण भारत वर्ष को हीं नही, एक दिन संपूर्ण वसुधा को भी एक करने में सफल होगी।
समारोह का उद्घाटन करते हुए, मगध विश्व विद्यालय के पूर्व कुलपति मेजर बलबीर सिंह ‘भसीन‘ ने कहा कि, हिंदी की देवनागिरी लिपि, पंजाबी की गरमुखी के अत्यंत निकट है, जिसे सगी बहने हों। उन्होंने अपनी ग़ज़ल“लम्हा–लम्हा काट रही है ज़िंदगी/ क़तरा–क़तरा घाट रही है ज़िंदगी” का सस्वर पाठ कर ख़ूब तालियाँ भी बटोरी। इस अवसर पर, हैदराबाद से आए, भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति बी डी जत्ती द्वारा स्थापित संस्था ‘वासव समिति, हैदराबाद‘ के अध्यक्ष जनार्दन पाटिल का, ‘साहित्य सम्मेलन हिंदी सेवी सम्मान‘ से सम्मानित किया गया।
सम्मेलन के साहित्य मंत्री डा शिववंश पांडेय ने कहा कि, हिंदी के विकास में सबसे बड़ी बाधा, भारत में इसका राज–काज की भाषा नही बन पाना ही है। जिस दिन यह बाधा दूर कर दी जाएगी, हिंदी को नाए पंख लग जाएँगे। उन्होंने कहा कि आज का दिवस यह संकल्प लेने का दिन है कि हम हिंदी को अपनी माता का सम्मान दें।
प्रो वासुकीनाथ झा, डा नागेश्वर प्रसाद यादव, कुमार अनुपम तथा चंद्रदीप प्रसाद ने भी अपने विचार व्यक्त किए।
इस अवसर पर आयोजित कवि सम्मेलन में कवियों ने एक ओर जहाँ हिंदी की महिमा और उसकी पीड़ा । वरिष्ठ कवि भगवती प्रसाद द्विवेदी ने इन पंक्तियों से हिंदी की महिमा का बखान किया कि, “ भाषा बहता नीर, हमारी हिंदी है/ स्वाभिमान प्राचीर, हमारी हिंदी है/ इसमें गंगा–जमुनी संस्कृतियों की लय/ जन–मन की आशा–अभिलाषा का संचय/ साखी–सबद –कबीर, हमारी हिंदी है।” कवि आचार्य आनंद किशोर शास्त्री ने कहा कि, “ हिंदी से है आज़ाद हिंद/ यह आज़ादी की भाषा है/ हिंदी मेरी पहचान, मुहर, हिंदी मेरी परिभाषा है“।
मुज़फ़्फ़रपुर से आई कवयित्री डा आरती ने इन पंक्तियों से, हिंदी–उर्दू की एकता का पैग़ाम दिया कि, “छोड़िए शिकवे गिले, इसमें अदावत कैसी? ये मुहब्बत है मुहब्बत में शिकायत कैसी? चाहे हिंदी हो या उर्दू हो या कोई भी ज़ुबां/ सब मुहब्बत की जुबां है तो ये नफ़रत कैसी?” शायरा मासूमा खातून ने कहा– “ आती है याद जिनकी वफ़ाएँ, जो सुबहों–शाम/ काँटों से लिख रही है कली पर उसी का नाम।“
वरिष्ठ कवि महेश बजाज ने इन पंक्तियों में नसीहत दी कि, “दिल कभी किसी बेवफ़ा से लगाया न कीजिए/ आसुओं को यूँ बेसबब बहाया न कीजिए“। डा शंकर प्रसाद ने अपनी ग़ज़ल पढ़ते हुए यों कहा कि, “ सजेगी ज़िंदगी इस सुरबहार की धुन पर/ ग़ज़ल के साए में शमा जलाए आ जाओ“। व्यंग्य के कवि ओम् प्रकाश पाण्डेय ‘प्रकाश‘ ने इन शब्दों से वर्तमान राजनीति पर प्रहार किया कि, “ जनता की क़ब्र पर इमली के दो पेड़ खड़े हैं/ दोनों में अपनी अपनी जाती के मोती जड़े हैं/ दोनों पर वोटों के दो भूत हैं/ जनतंत्र के दोनों यमदूत हैं।“
कवयित्री आराधना प्रसाद,कवि विजय गुंजन, डा मेहता नगेंद्र सिंह, राज कुमार प्रेमी,जय प्रकाश पुजारी, लता प्रासर, सुनील कुमार दूबे, वेद प्रकाश सिंह, इंद्र मोहन मिश्र महफ़िल, सरोज तिवारी, पूनम आनंद, सुमेधा पाठक, डा विनय कुमार विष्णुपुरी, आनंद प्रवीण, जगदीश प्रसाद राय, निकहत आरा, बच्चा ठाकुर, शालिनी पाण्डेय, राज किशोर झा, श्याम बिहारी प्रभाकर, प्राची झा, पंकज प्रियम, डा रामाकान्त पाण्डेय, इरशाद सिद्दीक़ी, कुंदन आनंद, गणेश झा, रवींद्र कुमार त्यागी, सच्चिदानंद सिन्हा, नेहाल कुमार सिंह, तथा बाँके बिहारी साव ने भी अपनी रचनाओं से कवि–सम्मेलन को यादगार बना दिया।
मंच का संचालन योगेन्द्र प्रसाद मिश्र ने तथा धन्यवाद–ज्ञापन कृष्ण रंजन सिंह ने किया।