कारगिल के शहीद कैप्टन मनदीप सिंह की बिटिया गुरमेहर ने बहुत बुनियादी बात कही है। नफ़रत युद्ध थोपने वालों से नहीं, बल्कि युद्ध से।
रिटार्यड आईपीएस ध्रुव गुपत की कलम से
उस अमानवीयता, स्वार्थ और युद्धलिप्सा से जिसने मनुष्यता के जन्म से लेकर आज तक दुनिया पर लाखों-करोड़ों युद्ध थोपे हैं और करोड़ों निरीहों की जान ली है।
पाकिस्तान नहीं होता तो हम किसी और से ही लड़ रहे होते। कोई और भी नहीं होगा तो हम आपस में हिन्दू-मुसलमान, अगड़ों-पिछड़ों के नाम पर युद्ध करके मरेंगे। भारत से नहीं लड़ पा रहे तो पाकिस्तान के लोग भी आपस में फ़िरका और आतंक के नाम पर कट-मर ही रहे हैं।
पकिस्तान को उसके गुनाहों की सजा मिलनी चाहिये मगर हमें यह भी सोचना होगा कि उससे चार चार युद्ध लडकर भी क्या हासिल हुआ ? युद्ध एक मानसिक रोग है और हमारी लड़ाई इस रोग के बुनियादी कारणों से भी चलती रहनी चाहिए।
अगर राष्ट्रवाद की बेहिसाब खुजली से पीड़ित लोगों को गुरमेहर की बात इतनी बुरी लगी तो उन्हें सीधे पाकिस्तान से भिडने से कौन रोक रहा है ? अपने तीन साल के शासन में सीमा पर पाकिस्तनी सेना और आतंकियों के हाथों अपने सैकड़ों सैनिकों को बेमतलब मरवाने वाले इन बुज़दिलों में पाकिस्तान से लड़ने का साहस नहीं है।
अपनी नाकामी का गुस्सा वे कायरों की तरह गुरमेहर जैसी बच्चियों को बलात्कार की धमकी देकर, देश के मुसलमानों को अपमानित कर पाकिस्तान भेजने और धर्मनिरपेक्ष लोगों को हिन्द महासागर में डुबो देने का भय दिखाकर ही उतारेंगे।
इंतज़ार करें, फासीवाद का चेहरा आहिस्ता-आहिस्ता अपना नक़ाब उतार रहा है !