लालू प्रसाद को जल की सजा सुनाये जाने के बाद रियल वर्ल्ड में भले ही जातीय उन्माद के धुएं का आभास नहीं हो रहा है पर वर्चुअल वर्ल्ड में जातिवादी टिपपणियां चरम पर है.
विनायक विजेता
लोकप्रिय सोशल नेटवर्किंग साइट ‘फेसबुक’ सहित कुछ अन्य साइटों पर जिस तरह की टिप्पणियां आ रहीं हैं उससे यह लगता है कि कहीं बिहार को 1980 से 1990 के उसी दौर में झोकने की साजिश तो नहीं हो रही जिस दौर के लिए कभी बिहार बदनाम रहा. कई कथित राजद समर्थक बंधु सजा सुनाने वाले सीबीआई जज को एक खास जाति का बताते हुए काफी आपत्तिजनक जातीय टिप्पणी कर रहें हैं.
29 सितम्बर के सीबीआई के फैसले के बाद स अनुमानित तौर पर 20-25 नये ग्रूप वजूद में आ गये हैं. ये ग्रूप खुल कर किसी एक जाति के पक्ष में है तो दूसरे के विरोध में. इनमें दोनों जातियों के लोग हैं. जो खुल कर जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं और किसी खास जाति के खिलाफ जहर उगलने में भी पीछे नहीं हैं.
कुछ ऐसी ही आपत्तिजनक जातीय टिप्पणी सवर्ण समुदाय से आने वाले एक खास जाति के लोग भी कर रहे हैं.
ऐसी टिप्पणी करने वालों को यह सोचना चाहिए कि अगर माननीय न्यायाधीश जातीय दूर्भावना से प्रेरित होते तो वह अपनी जाति के ही एक सांसद को 4 साल की सजा और 5 लाख का जुर्माना क्यों करते।
सोशल मीडिया का सहारा लेकर फेक आईडी द्वारा इस तरह की जातीय टिप्पणी वैसे लोगों की साजिश भी हो सकती है जो इन दोनों वर्गों में दूरी बनाना चाहता है ताकि इन दोनों वर्गों की दूरी से उसका राजनीतिक लाभ सध सके.
चारा घोटाला में सजा पाए किसी राजनेता के लिए अभी न्यायायिक रास्ते बंद नहीं हुए हैं. उनके लिए हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे खुले हैं, पर न्यायायिक आदेश के बहाने जातीय तनाव बढाने की कोशिश गलत है.
कहीं ऐसा तो नहीं कि सवर्ण समुदाय में लालू प्रसाद की बढी पैठ को कम करने के लिए लोकप्रिय सोशल नेटवर्किंग साइट पर यह चाल चली जा रही हो. वेसे कथित फेसबुक मित्रों का भी बहिष्कार करें जो बिहार को 90 के दशक में दो जातियों के भीषण तनाव वाले दौर में झोकने की साजिश रच रहे हैं.
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