नौकरशाही डॉट इन के इंटरनेशनल अफेयर्स एडिटर तुफैल अहमद सवा सौ बरस में पहली बार किसी मुस्लिम को आईबी का निदेशक बनाये जाने को ऐसे सोच पर करारा हमला बता रहे हैं जो यह मानते रहे हैं कि सेना और खुफिया एजेंसी का प्रमुख बनने के लिए मुसलमानों के लिए संभावना नहीं है.
एक सौ पच्चीस साल के इतिहास में सैयद आसिफ इब्राहीम भारतीय खुफिया ब्यूरो (आईबी) के पहले मुस्लिम प्रमुख बन गए हैं.यह एजेंसी देश में खुफिया सूचना जुटाने का काम करती है.
उन्हें आईबी के पहले मुस्लिम प्रमुख बनाए जाने के मसले ने भारत के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान भी खींचा है. खासकर पश्चिम के देश, जिनकी पैनी नजरें दुनियाभर में फैले आतंकवाद पर हैं.भारत में सामान्यतौर पर मुस्लिमों ने इब्राहीम को नए आईबी प्रमुख बनाए
जाने के फैसले का स्वागत किया है लेकिन कुछ मुस्लिम और हिंदू इसे कांग्रेस की राजनीतिक चाल के रूप में देख रहे हैं.जिसके तहत कांग्रेस 2014 में लोकसभा चुनाव के लिए मुस्लिमों को संतुष्ट करने की कोशिश कर रही है.अलग-अलग लोगों के विचारों को भारतीय लोकतंत्र में वैचारिक विभिन्नता के रूप में देख सकते हैं लेकिन इब्राहीम की नियुक्ति का इससे कहीं अधिक राजनीतिक और दार्शनिक महत्व भी है.
दुनिया में सबसे ज्यादा अधिकार सम्पन्न हैं भारतीय मुसलमान
दुनिया में भारत ही एक ऐसा देश है जहां मुस्लिमों को 50 साल से अधिक समय से लोकतांत्रिक अधिकार हासिल है. इसके अलावा इंडोनेशिया और तुर्की के मुस्लिमों को कुछ लोकतांत्रिक अधिकार हासिल हैं. लेकिन इन दोनों ही देश के मुस्लिमों को लोकतांत्रिक अधिकार कुछ दशक पहले ही मिले हैं.इसलिए इब्राहीम का आईबी प्रमुख के रूप में प्रोमोशन दो प्रमुख कारणों से महत्वपूर्ण हैं-पहला, यह भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता की ओर इशारा करता है. जिससे भारतीय मुसलमानों की जिंदगी पर सकारात्मक असर होगा. दूसरा, एक बड़ी सरकारी एजेंसी के प्रति लोगों की उस सोच को भी तोड़ता है जिसके बारे में कहा जाता है कि आईबी में मुस्लिमों अधिकारियों का प्रतिनिधित्व कम है या उन्हें इससे दूर रखा जाता है.इस फैसले को भारत के धर्मनिरपेक्ष आदर्शों से भी मुस्लिम खुद को जोड़कर देखेंगे.
यह फैसला ऐसे समय में आया है जब देश में काफी संख्या में मुस्लिम युवाओं को संदिग्ध आतंकी आरोपों के आधार पर गिरफ्तार किया गया है. इन मुस्लिम युवाओं को लेकर भी वे नए तरीके के विचार कर सकते हैं.
यह साफ है कि कांग्रेस ने सामान्य नियुक्तियों से हटकर यह फैसला मुस्लिमों के साथ खुद की सहानुभूति दिखाने के लिए लिया है. यह कांग्रेस ही है जिसने पिछले दशक में मुस्लिम समुदाय को मुख्यधारा से अलग करने का कारण बनी.1986 में राजीव गांधी सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले को खारिज करने के बाद मुस्लिम सिद्धांतवादियों का न सिर्फ हौसला बढ़ा बल्कि देश में हिन्दुत्ववादी शक्तियों का प्रभाव व्यापक हुआ. अपने फैसले में कोर्ट ने एक जरूरतमंद तलाकशुदा महिला शाह बानो को आर्थिक सहायता उपलब्ध कराने की बात कही थी.हिन्दुत्ववादी शक्तियों के प्रभावी होने के बाद ही बाबरी मस्जिद विध्वंस, गुजरात में मुस्लिमों के खिलाफ दंगे और कट्टर हिन्दुओं की ओर से मुस्लिम ठिकानों पर बम धमाके किए गएं. इसी कारण कुछ समय के लिए देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था से मुस्लिम खुद को अलग महसूस करने लगे. साथ ही धर्मनिरपेक्ष शक्तियां भी पीछे हो गई. प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा के मुताबिक शाह बानो से जुड़े कांग्रेस के एकमात्र फैसले ने, बाकी किसी भी दूसरे फैसले से अधिक आधुनिक भारत को नुकसान पहुंचाया है. अब भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों की ओर से सर्वोच्च पदों पर मुस्लिमों की नियुक्ति की जाती रही है. इसमें एपीजे अब्दुल कलाम को
राष्ट्रपति, हामिद अंसारी को उप राष्ट्रपति, सलमान खुर्शीद को कानून मंत्री, अल्तमस कबीर को सुप्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायधीश बनाया जाना सबसे प्रमुख है.
स्कॉलर डॉ. उमर खालिदी ने अपने लेख में कहा था कि भारतीय मुसलमानों के मन में यह गहरे तौर पर बैठ चुका है कि वे सेना और खुफिया विभाग में सर्वोच्च पदों पर नहीं पहुंच सकते. इसलिए इब्राहीम की नियुक्ति खुफिया विभाग को लेकर इस्लामिक विचारकों के उस धारणा को भी तोड़ती है जिसमें वे भारत के लोकतांत्रिक व्यवस्था पर सवाल उठाते हैं.मुस्लिम समुदाय में अलगाव की भावना को खत्म करने के साथ-साथ यह फैसला महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और भीम राव अंबेदकर की सोच और भारतीय गणतंत्र की धर्मनिरपेक्ष छवि को भी ऊपर उठाती है.भारतीय लोकतंत्र के एक टर्निंग प्वाइंट के रूप में इसे माना जा सकता है.यह हाल की उन घटनाओं की भी याद दिलाता है जिससे मुसलमान खुद को अलग-थलग महसूस करते रहे हैं या उनके साथ भेदभाव किया जाता है.लेकिन उनकी भावनाओं के साथ हजारों हिन्दू खुद को जुड़ा महसूस कर रहे थे. कुछ ऐसी ही स्थिति दलितों के साथ भी है. वो भी अपने साथ भेदभाव महसूस करते हैं. लेकिन ईब्राहीम की नियुक्ति भारतीय लोकतांत्रिक विविधता में एकता की पहचान को मजबूत कर दिया है.
तूटी हैं जाति और धर्म की बाधायें
1776 में अमेरिका के पहले लोकतंत्र बनने के बाद संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य राष्ट्रों में से कई देशों में लोकतंत्र की शुरुआत हुई.बीते वर्षों में जाति, वंश और क्षेत्रियता को खत्म करने के रूप में भी लोकतंत्र को मजबूत कारण के रूप में देखा गया है. पिछले छह दशक में भारत ने सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में बड़े पैमाने पर जाति और धर्म जैसी बाधाओं को तोड़ा है. समाज के निचले तबके के लोगों को अभूतपूर्व राजनीतिक शक्ति हासिल हुई है. उन्हें वित्तीय और शैक्षणिक संस्थानों में मौके मिले हैं.
भारत इंडोनेशिया के बाद दूसरा सबसे बड़ा मुस्लिम राष्ट्र है.भारतीय मुसलमानों के लोकतात्रिक अधिकारों का बड़ा राजनीतिक औ महत्व है.पश्चिमी देशों के कई प्रभावकारी लेखकों और नेताओं ने पिछले सालों में भारत के मुसलमानों के लोकतांत्रिक अधिकारों को समझा है. यूएस के पूर्व प्रेसिडेंशियल स्पीच राइटर डेविड फ्रम ने 16 दिसंबर 2003 को लिखा ‘फ्री मार्केट और ओपन मार्केट के मजबूत होते इस दौर में भारतीय मुसलमान पूरे विश्व के इस्लामिक समुदाय का नेतृत्व करेंगे और उन्हें इस्लाम सीखाएंगे. इसी सोच को एक और जाने-माने कॉलम लेखक थॉमस एल फ्रायडमैन ने अपनी किताब द वर्ल्ड इज फ्लैट में रेखांकित किया है. इधर, जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने 2006 में दिल्ली में एक भाषण के दौरान कुछ इसी तरह के विचार दिए.
यह भी लोकतंत्र का ही प्रभाव है कि भारतीय मुसलमान पड़ोसी देशों में सक्रिय अलकायदा और तालिबान के जिहादी बुलावे से दूर ही रहे हैं.
लोकतंत्र में एक और अच्छी बात है कि जाति और धर्म बिना ध्यान में रखें लोगों की जिंदगियों में सकारात्मक बदलाव लाने का प्रयास और उनके स्किल के मुताबिक बेहतर स्थान देने की कोशिश होती है. इब्राहीम इसलिए सफल नहीं हुए हैं कि वे मुस्लिम हैं. बल्कि वे एक ऐसे भारतीय हैं जो तीन दशकों से देश की खुफिया ब्यूरो को अपनी सेवा दे रहे हैं. इसे एक दूसरे उदाहरण से समझ सकते हैं. बराक ओबामा अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति इसलिए नहीं बनें कि वे अश्वेतों के नेता थे. वे अमेरिका के लोगों के नेता होने के कारण वहां के राष्ट्रपति चुने गएं. भारत इस वक्त एक बड़े बदलाव से गुजर रहा है.नागरिकों के लिए बड़े शैक्षणिक और वैश्विक अवसर तैयार किए जा रहे हैं. भारतीय मुसलमान सफल हो सकते हैं.लेकिन तभी जब वे इब्राहीम की तरह इन नए अवसरों का लाभ लेने के लिए खुद को तैयार कर पाएंगे.
इस स्थित में इब्राहीम के नए आईबी मुखिया बनने को कांग्रेस की ओर से मुस्लिमों को सहायता करने के रूप में नहीं देखा जा सकता. असल में इब्राहीम ने यहां तक आने के लिए भारतीय पुलिस सेवा में पहले एंट्री ली.जहां सिर्फ मेरिट के आधार पर ही प्रवेश होता है.और हां, देश के लोकतांत्रिक स्तंभो को मजबूत करके ही हम सफलता के लिए अवसर पैदा कर सकते हैं.