बिहार के पूर्व महानिदेशक होमगार्ड मनोज नाथ बता रहे हैं कि महत्वकांक्षी नेताओं ने वफादार नौकरशाहों की बटालियन ऐसे विकसित की है कि अब सरकारी तंत्र भ्रष्टाचार को अमर्यादित नहीं समझता
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में सीबीआई को पिंजड़े में बंद ‘तोता’ कहा था. तभी बंगलोर की अदालत ने आईबी को पिंजड़े में बंद ‘कबूतर’ कह डाला.निश्चित तौर पर देश की इन दो संघीय एजेंसियों के लिए कहे गये ये शब्द उनकी प्रशंसा में नहीं थे.ऐसे में यह कैसे संभव है कि देश के पुलिस बलों को सुप्रीम कोर्ट के पैमाने पर उचित ठहराया जा सकता है? पुलिस बलों की स्थिति तो इन जांच एजेंसियों से भी बदतर है तो ऐसे में उन्हें वैक्टेरिया या वायरस कहा जाये?
जीव विज्ञान हमें सिखाता है कि विकास का पहिया पीछे नहीं घूमता. और शायद नैतिकता विकासवादी सिद्धांत के दायरे में नहीं आता.दर असल सीबीआई का इतिहास रहा है कि उस में प्रगतिशीलता की कमी रही है.हालांकि काफी अर्से तक इसकी छवि हिरोइक भी रही है. तो आखिर कैसे और कब इसकी छवि हिरो से जोकर की हो गयी?
राज्य खुद कैद है
इस पूंजीवादी व्यवस्था में राज्य की हालत दर असल बंदी सा है.समाज दो हिस्सों में बंट गया है- कुछ मुट्ठी भर लोगों का समाज और अधिसंख्य समाज. यहां असमान रूप से कुछ लोग सारे संसाधनों के मालिक बने बैठे हैं. ऐसे में राजनेता, नौकरशाह और दलाल एक साथ मिले हुए हैं. इधर प्रशासनिक और सामाजिक कार्यों के लिए सरकारी खजाने के धन का खर्च कई गुना बढ़ गया है और नतीजे में ड्रामाई अंदाज में भ्रष्टाचारियों और दलालों की दखल भी बढ़ती चली जा रही है. सरकार भ्रष्टाचार के नियंत्रण के नाम पर तरह तरह के कानून बना रही है. वैसे कानूनों पर खुद नौकरशाहों की गिरफ्त मजबूत ही होती चली जा रही है, वही सशक्त होते जा रहे हैं. जिसका नतीजा यह है कि भ्रष्टाचार में कमी आने के बजाये यह विकराल रूप लेता चला जा रहा है.कानून बना कर सरकार गदद है.
दूसरी तरफ ऐसे कानूनों का कोई फायदा आम जन को नहीं है.ऐसी ही परिस्थितियों के लिए लेयो स्ट्रॉस ने इसे अपने अंदाज में “आवश्यक झूठ” से संबोधित किया है, जहां सत्ताधारी लोग आम जनता का ध्यान गंभीर मुद्दों से भटका कर खामोशी से अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं. भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस का सोसा दर असल सरकार के ‘आवश्यक झूठ’ के चक्रव्यूह का ही हिस्सा है.
सच कहें तो भ्रष्टाचार से संबंधित नव उदारवादी विमर्श, दर असल भ्रष्टाचार को केवल आर्थिक आईने में देखता है.यहां रिश्वत का लेन-देन को सामाजिक मर्यादा के अधीन रखा जाता है और इसे सुविधाशुल्क भर माना जाता है.ऐसे समाज में सबीबीआई समेत तमाम जांच एजेंसियों से उम्मीद करना बेतुका है.
खास कर तब जब सीबीआई के निदेशक जैसे पदों पर वही सरकार नियुक्ति करती है जो खुद ही गैरकानूनी कार्यों में लिप्त रहती है. इतना ही नहीं वह उसके कार्यों का निर्धारण भी खुद ही करती है. और जाहिर है वह सारे काम अपने हितों को ध्याम में रख कर ही करती है.
वफादारी में पास तो सब आये रास
पिछले कुछ दशकों से महत्वकांक्षी नेताओं ने वफादार नौकरशाहों की बटालियन खड़ी करने की परम्परा बना रखी है.अगर ये नौकरशाह उनकी वफादारी की परीक्षा में पास हो जाते हैं तो उन्हें सभी नियम कायदों परे रखा जाता है. इस तरह के माहौल में कुछ अधिकारी ऐसी प्रवृत्ति वाले नेताओं की दासता को खुशी खुशी स्वीकार भी कर लेते हैं.
ऐसे में तोता अपने मालिक की ही जुबान बोले तो इसमें हैरत की बात क्या हो सकती है क्योंकि उनको इसी अंदाज में संस्कारित और पोषित किया जाता है कि वे वही बोलें जो उनके आका की चाहत हो.
लेखक रिटार्यड आईपीएस हैं और पटना में रहते हैं. उनसे [email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है
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