हर साल हमारे नौनिहाल इसी बेबसी में मरते हैं और हमारा नेतृत्व और सिस्टम कुंभकरणीय नींद से जागने का नाम नहीं लेता. अब तो यह वार्षिक शोक बन गया है.
हम उस शर्मनाक सिस्टम का हिस्सा हैं जहां दिमागी बुखार से होने वाली मौतें एक वार्षिक शोक के रूप में हर साल आती हैं और हमारा यह सिस्टम कुछ नहीं कर पाता. मुजफ्फरपुर के अस्पतालों में हमारे नौनिहाल हर साल बेबसी में दम तोड़ देते हैं. हम अपने इन नौनिहालों पर मर्सिया भी नहीं पढ़ पाते.
अब तक 60 बच्चों की जानें जा चुकी हैं. गिनती जारी है. और शायद जारी रहेगी.
हम वैज्ञानिक शोध और विकास के दावे करते हैं. पर अपने बच्चों को बचा नहीं पाते. हमें अपने नाकारेपन पर शर्मिंदा होना चाहिए या इस अमीरवादी सिस्टम से बगावत करनी चाहिए क्योंकि मरने वाले ये नौनिहाल अमीरजादे नहीं, गरीबों की संतानें हैं.
राज्य और केंद्र सरकार के सामने इन गरीबों की क्या सिर्फ इतनी कीमत है कि उनसे सिर्फ वोट लिया जाये?
अगर बिहार में इस बीमारी का इलाज नहीं तो सरकार उनके लिए कुछ और वैक्लपिक उपाय भी नहीं कर सकती?
विडंबना यह है कि इस इलाके में यह बीमारी हस साल आती है और हर साल इन महीनों में दर्जनों बच्चों की जान लील जाती है. सरकार इस पर पहले से कोई तैयारी भी करती है या नहीं यह कैसे माना जाये क्योंकि हमारे बच्चे हर साल दम तोड़ देते हैं. इस साल भी ऐसी संभावना पहले से जतायी जा रही थी. पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता असित नाथ तिवारी ने तो मुख्यमंत्री को स्पीड पोस्ट के ज़रिए खत भेजकर आगाह किया था, उन्होंने साफ कहा था कि मंत्रिमंडल विस्तार को रोकें और मुजफ्फरपुर के इलाकों में फैलने वाली बीमारी पर फोकस करें… पर उनके लिए सरकार बचाना ज्यादा ज़रूरी था… विडंबना ये है कि इन मौतों के लिए किसी की कोई जिम्मेदारी तय नहीं होगी.