मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी बिहार की राजनीति के दो केंद्र बिंदु हैं। आज की तारीख में अपने-अपने खेमों के स्वाभाविक नेता हैं। नीतीश कुमार खेमा ने नीतीश को विधान सभा चुनाव के बाद भी नेता मानने पर सहमत हो गया है। लेकिन यही स्थिति सुशील मोदी के साथ नहीं है। हालांकि आज भी बिहार भाजपा के वे सर्वमान्य नेता हैं और केंद्रीय नेतृत्व मोदी को ही सर्वाधिक महत्व देता है।
वीरेंद यादव
2005 में एनडीए के सत्ता में आने के बाद नीतीश कुमार सीएम बने और सुशील मोदी डीसीएम। नीतीश बाढ़ से लोकसभा सदस्य थे और सुशील मोदी भागलपुर से सांसद चुने गए थे। सरकार बनने के बाद दोनों ने विधान सभा चुनाव का सामना करने के बजाय विधान परिषद में जाना पसंद किया। यह राजनीतिक रूप से व्यावहारिक भी था। क्योंकि चुनाव लड़ने को लेकर कई तकनीकी परेशानी आ सकती थी। आप यह भी कह सकते थे कि इनके पास कर्पूरी ठाकुर जैसे विश्वस्त विधायक नहीं थे, जो इनके लिए विधान सभा से इस्तीफा दे दें। जैसा कि कर्पूरी ठाकुर के लिए देवेंद्र यादव ने किया था। 1977 में कर्पूरी ठाकुर जब सीएम बने थे, तब वह भी सांसद थे।
राबड़ी देवी के तरह साहस भी नहीं
राबड़ी देवी 1997 में सीएम बनने के बाद विधान परिषद में चली गयी थीं। लेकिन 2000 के विधान सभा चुनाव का सामना किया और जीतकर विधान सभा में आयीं। लेकिन यह साहस नीतीश कुमार और सुशील मोदी नहीं जुटा पाए। 2010 के विधान सभा चुनाव में हवा पूरी तरह एनडीए के पक्ष में बह रही थी। एनडीए जीत के प्रति आश्वस्त था। इसके बावजूद नीतीश और सुशील विधान सभा चुनाव लड़ने को तैयार नहीं हुए।
आगामी विधान सभा चुनाव में दोनों दो खेमों के नेता हो गए हैं। विधान सभा चुनाव के लिए प्रत्याशियों के चयन में दोनों की बड़ी भूमिका होगी। तब यह सवाल जायज हो जाता है कि क्या नीतीश कुमार और सुशील मोदी खुद विधान सभा चुनाव का सामना करने के लिए तैयार हैं। यदि चुनाव लड़ते भी हैं तो किस क्षेत्र से। यह प्रश्न अनुत्तरित है, लेकिन जनता उत्तर चाहती है।