भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने केंद्र सरकार की आर्थिक नीतियों की आलोचना की है और इसे आत्मघाती बताया है। उनके बयान के बाद सत्ता पक्ष और विपक्ष के तेवर में जबरदस्त उछाल आया है। यशवंत सिन्हा के बयाने के पक्ष में पूर्व वित्त् मंत्री पी चिदंबरम, लालू यादव व शरद यादव सरीखे नेता खुल कर सामने आये तो सरकार के बचाव में गृहमंत्री राजनाथ सिंह और यशवंत सिन्हा के पुत्र केंद्रीय राज्यमंत्री जयंत सिन्हा उतरे।
वीरेंद्र यादव
इन आरोपों और प्रत्यारोपों के बीच एक सवाल उठता है कि क्या यशवंत सिन्हा पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की राह पर जा रहे हैं। 1987 में वीपी सिंह ने बोफोर्स प्रकरण में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर वित्त मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। उस समय देश भर में कांग्रेस का एकछत्र राज था। कांग्रेस के खिलाफ गोलबंदी के केंद्र वीपी सिंह बन गये और पूरा विपक्ष गैरकांग्रेसवाद के नाम पर वीपी सिंह के साथ खड़ा हो गया। उसमें भाजपा भी शामिल थी। भ्रष्टाचार और मंडलवाद की ऐसी आंधी चली कि दो वर्ष में ही 1989 में वीपी सिंह प्रधानमंत्री बन गये हैं।
आज भी लगभग वही माहौल है। विपक्ष के पास कोई राष्ट्रीय चेहरा नहीं है। कांग्रेस भी नेतृत्व देने में सक्षम नहीं है। नोटबंदी और जीएसटी के कारण केंद्र के खिलाफ एक लामबंदी की कोशिश की जा रही है। लेकिन इस लामबंदी को तर्कसंगत बताने और बनाने वाला कोई चेहरा नहीं है। केंद्र सरकार की नीतियों को तथ्यों के आधार पर नकारा बताने वाला कोई नहीं है। विपक्षी दल ही नहीं, भाजपा के अंदर भी आर्थिक नीतियों के खिलाफ आवाज उठने लगी है। अर्थशास्त्रियों ने भी केंद्र की आर्थिक नीतियों पर सवाल उठाया है। नोटबंदी और जीएसटी ने आम आदमी को परेशान किया है। आम आदमी काम से ज्यादा कागजों को सहेजने में व्यस्त है।
इस माहौल में यशवंत सिन्हा विपक्ष की ताकत को मजबूत आधार प्रदान कर सकते हैं। सामाजिक पृष्ठभूमि के आलोक में उनकी स्वीकार्यता भी आसान है। यदि श्री सिन्हा पूरी ताकत और तथ्यों के साथ आते हैं तो राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी राजनीतिक का केंद्र बन सकते हैं। इसकी काफी संभावना है।