बरेली की ठंड से शरीर ही नहीं ठिठुरता है, बल्कि आत्मा भी ठिठुर जाती है और ऐसे में  दिखाई देती है बची हुई एक उम्मीद! और इसी उम्मीद का नाम वीरेन डंगवाल।

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नीतीश मिश्र

मेरी  पहली मुलाकात वीरेन दा से सन 2003 मे बरेली में हुई थी, सड़क पर चलते हुए एक व्यक्ति दिखाई देता है, जिससे में आगे जाने के लिए रास्ता पूछता हूं उस वक्त मुझे नहीं मालूम था यह वही व्यक्ति है जो दुष्चक्र में सृष्टि पर पहरेदारी चलते हुए कर रहा है।

यह काम उन्हीं के लिए था, और इसे वह बखूबी कर भी रहे थे, और आज मैं सुबह एक उम्मीद लेकर उठा था कि होंठों को एक खुशबूदार चाय से रंगूगा लेकि मुझे क्या पता था कि मेरे होंठ अभी कांपने लगेंगे। दिल्ली से एक साथी का फोन आता है और ऊधर से एक कांपती हुई आवाज आती है कि उम्मीदों का फूल सो गया- डंगवाल जी नहीं रहे. इतना सुनते ही मैं अवाक रह गया.

अपने समय के साथ जीते हुए सृष्टि पर पहरेदारी करने का सदगुण कबीर के पास था, और उन्हीं गुणों तथा तत्वों की संयुक्त चेतना अगर किसी में दिखाई देती है तो वह है वीरेन डंगवाल। जो अपने समय को सिर्फ जीये ही नहीं बल्कि अपने समय के समानंतर एक विराट  प्रतिसमय भी खड़ा करते रहे। डंगवाल का जाना एक व्यक्ति का जाना नहीं है बल्कि एक उम्मीद का जाना है।

यह साहित्य की ऐसी घटना है जिसे साहित्य खुद संवारेगा न कि व्यक्ति। वीरेन अपने समय के एक सचेत युगदृष्टा थे, जो मानवीय समय में खड़े हो रहे यांत्रिकता और भौतिकता को एक साथ चुनौती देते हुए समाज को हर संभव बचाने का जोखिम उठाते हुए चलते है। आज जबकि हिंदी कविता प्रगतिशीलता की बात एक फार्मूले के तहत करती है वहीं वीरेन के यहां कविता मनुष्यता को प्रगतिशीलता से जोड़कर चलती है, जिसके चलते समाज में एक ही समय उम्मीद भी बची रहती है और संघर्ष भी।

 

उनकी कविताएं अपने समय के यर्थाथ से मुठभेड़ करती हुई अपने समय को एक विकल्प भी देती है। वीरेन डंगवाल जीवन पर्यन्त पद- प्रतिष्ठा से सदैव दूर रहे, एक मौलिक आदमी की तरह ,उम्मीद और जिजीविषा के रंग भरते हुए जीवन जगत को समझते रहे और वही अनुभव उनकी कविता के संसार को समृद्ध करता है, कहीं भी उनकी कविताओं में बौद्धिकता का आतंक या रंग की गहराई ऐसी नहीं मिलेगी जहां समय और मनुष्य न उतर सके।
इतिहास वही व्यक्ति निर्मित करता है जिसे वर्तमान और भविष्य की समझ हो, और वीरेन को यह समझ गंगा से मिलती है गंगा की तरह खुद पर अटूट आस्था लिए वे शब्दों में एक साधक की तरह खुशबू भरते है जो चेतना के धरातल पर उतरते ही व्यक्ति के अंतर्मन का रंग हो जाता है। उनके यहां कोई ऐसा रंग नहीं मिलेगा जिसे आम- आदमी न जानता हो। इसी आम आदमी के इतिहास को वे बहुत ही बारीकी से रचते है। आज जबकि उजले दिन की कहीं दूर – दूर तक कोई उम्मीद बनती नहीं दिखाई दे रही है, चारों ओर एक शोर का कोहराम है ऐसे कठिन समय में अगर कुछ बचा है जो हमे जीवित रखने के लिए बाध्य करती है तो वह शख्स कोई और नहीं बल्कि हमारे वीरने दा है।

By Editor


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