महिला दिवस पर भी समूचा विश्व महिलाओं के लिए कंधे से कंधा मिला कर खड़े होने का नाटक जरूर करता है, मगर कोई भी उनकी प्रतिष्ठा, आजादी, और भागीदारी का मार्ग प्रशस्त नहीं करता। विश्व महिला दिवस विशेष..

फोटो साभार जागरण जंक्शन
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तबस्सुम फातिमा

एक तरफ नये अविष्कार, नई तकनी और रेस में भागती अंधी दुनिया है, दूसरी ओर इस दुनिया में अमेरीकी साम्राज्यवाद से लेकर उग्र रूप लेते आतंकवाद की चरम सीमा भी मौजूद है। वैश्विक विकास की अनंन्त सीमाओं को देखने के बाद इसी युग में जब महिलाओं की बात आती है तो यह समूचा विश्व एक ऐसे मजाक में परिवर्तित हो जाता है, जिस पर दिल खोल कर हंसा भी नहीं जा सकता। भारत, पाकिस्तान ही क्यों— यह बेहतर समय है, महिलाओं की अन्तरराष्ट्रीय स्थिति को फोकस में लाने के लिए क्योंकि यूरोप से अमेरिका तक, बाजारवाद से राजनीति तक वे मौजूद है, मारे जाने के लिए, तिरस्कार के लिए। बलात्कार से लेकर पुरूष मानसिकता के दोगले रवैये तक वे केवल इस्तेमाल हो रही हैं या उनका हर सतह पर मानसिक और दैहिक शोषण किया जा रहा है।

अतीत से मुक्ति

यह सोचने का समय है कि क्या सचमुच आज की महिलाएं अतीत के भयानक और काले पन्नों से मुक्ति पा चुकी है? जब वे दासी या गुलाम होती थीं और एक बड़े बाजार में उनकी बोली लगाई जाती थी। पति की मृत देह के साथ वे सती हो जाती थीं या देवदासी या इस तरह के हजारों नामों और उपमाओं के साथ उनका दैहिक शोषण होता था। समय के पन्नों पर बाजार बदला है और बाजारवाद का चेहरा लेकिन 2015 आते-आते भी स्थितियां सामान्य नहीं हैं। आज वे अधिक तादाद में शिक्षित हैं। लेकिन फिल्म, मॉडलिंग, धर्म, समाज और राजनीति के बाजार में आज भी वे एक ऐसा ब्रांड है, पुरूषों का समाज जिन्हें नंगा करने और उनकी मजबूरियों को इस्तेमाल करने में ही अपने पौरूष  देखता है। अन्तरराष्ट्रीय महिला फोरम या संयुक्त राष्ट्रसंघ तक महिलाओं की ज्वलंत समस्याओं पर चर्चा जरूर करता है, लेकिन भीख के कटोरे में रखी क्षणिक हमदर्दी के अतिरिक्त महिलाओं को कुछ भी हासिल नहीं होता।

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आज जब हम अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की परम्परा निभा रहे हैं तो भले ही हम लेस्टरा नाम की महिलावादी कार्यकर्ता को याद करे लें जिसने फ्रांस की क्रांति के दौरान युद्ध को समाप्त करने की मांग करते हुए एक आंदोलन की शुरुआत की थी। इसका उद्देश्य युद्ध के दौरान महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों को रोकना था और जिसके सम्मान में 1910 में कोपेनहेगन में महिला दिवस की स्थापना हुई, लेकिन बीते 95 वर्षों में महिलाओं की हालात में कोई खास फर्क नहीं आया.

महिला दिवस के अवसर पर भी समूचा विश्व महिलाओं के लिए कंधे से कंधा मिला कर खड़े होने का नाटक जरूर करता है, मगर कोई भी सकारात्मक विकल्प महिलाओं की प्रतिष्ठा, आजादी, लक्ष्य, पहचान और समाज से राजनीति तक हर तरह की भागीदारी का मार्ग प्रशस्त नहीं करता।

 काट खाने वाला पुरूष समाज

भारत में भी देखें तो महिला आरक्षण बिल से लेकर महिला सुरक्षा के नाम की बयानबाजियां तो होती हैं, फिर यह बयान भी ठंडे बस्त में डाल दिये जाते हैं। और कितनी अजीब बात। जरा सोचें, इसी देश में महिलाओं को प्रतिष्ठा और सम्मान दिलाने का एक कार्यक्रम एक ऐसे आंदोलन से जोड़ दिया जाता है, जिसकी पृष्ठभूमि में एक भयानक बलात्कार के स्याह पन्ने छिपे होते हैं। दामिनी या निर्भया से उपजे विवाद के एक सप्ताह बाद ही इंडिया गेट की रहस्यमय खामोशी यह ऐलान कर जाती है कि महिलाओं को लेकर कोई क्रांति इस देश में शायद ही पनपने वाली। क्योंकि पुरूषवादी बारूदी सभ्यता में आज के युग में भी महिलाएं किसी विचार या नजरिये का नाम नहीं, एक देह का नाम हैं, जिस पर ललचाने वाले मांसाहारी गिद्ध हैं और काट खाने वाला विषैला पुरूष समाज। इसलिए स्थितियां न भारत में बदली हैं, न विश्व के किसी देश में। यह दूर्भाग्यपूर्ण है, जो कहा जाता है कि महिलाएं अपनी स्थिति के लिए स्वंय जिम्मेदार हैं। प्रश्न है, आप उसे उठने ही कहां देते हैं? कला साहित्य से राजनीति तक वह उठना चाहती है तो सबसे निर्मम हमला उसके चरित्र को लेकर होता है।

कहां है भागीदारी
अतीत से वर्तमान तक, भारत से समूचे विश्व तक कुछेक महिलओं के सत्ता संभालने, सत्ता में हिस्सेदारी को महिला सशक्तिकरण से जोड़ कर मत देखिये, क्योंकि विकासशील देशों में अभी भी महिला शक्ति का प्रतिशत 100 में दो-चार भी नहीं  है। अभी भी समान कार्य के लिए एक महिला पुरूष से 50 प्रतिशत कम का वेतन पाती हैं। विश्व के 87 करोड़ 50 लाख निरक्षरों में दो तिहाई से भी बड़ी संख्या महिलाओं की है। और लज्जा व खेद का विषय है कि आज भी वो अपने अधिकारों और सुरक्षा के लिए हाशिये पर खड़ी है, जहां से हो कर उसकी अपनी स्वतंत्रता और इच्छाओं का कोई रास्ता अभी भी नहीं जाता।

खुद लड़नी है लड़ाई
एक अंधेरे भविष्य के साथ समाधान या विकल्प का कोई रास्ता किसी भी देश के पास नहीं है। यह कोई लड़ाई नहीं है, जो महिलाओं को खुद लड़नी है। इस हकीकत को भी समझें कि पुरूष सत्तात्मक समाज की नीयत आज भी महिलाओं से संबंधित किसी समाधान को ढूंढने की नहीं है। यह एक नाटक है जो शताब्दियों से अनवरत चलता आ रहा है. यह साम्राज्यवादी, विकासशील देशों का ड्रामा है, जो अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के नाम पर महिलाओं को झूठी उम्मीद देने, उनका परिहास उड़ाने के नाम पर किया जाता है। असलियत में, इस नाटक के केन्द्रबिन्दु में यह बताना होता है कि स्वतंत्रता और अधिकारों की लड़ाई छोड़ कर महिलाएं पुरूषों के अधिपत्य को स्वीकार क्यों नहीं करतीं? शक्तिकरण और बड़ी पहचान की दो-चार मिसालों को विश्व की समूची महिलाओं की स्थिति के साथ जोड़ कर नहीं देखा जा सकता। अतीत का अंधेरा नये अंधेरे के रूप में महिलाओं के वर्तमान और भविष्य पर अभी भी अंकुश लगाये हुए है और इस घने अंधेरे से निकलने का रास्ता भी नहीं है। क्योंकि पुरूष अपनी साम्राज्यवादी मानसिकता और अपनी शासकीय प्रवृति से पराजित या बेदखल होने को तैयार नहीं।

By Editor


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