कलीम आजिज हमारे बीच नहीं रहे. पढ़िये यह प्यारी ग़ज़ल जिसे हमें ओबैदुर्रहमान ने भेजी है. औबैदुर्रहमान के पिता डा. अनीसुर्रहमान और आजिज के बीच गहरी दोस्त थी . अकसर आजिज उनके घर आते जाते थे
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इस नाज़ से, अंदाज़से तुम हाये चलो हो
रोज एक ग़ज़ल हमसे कहलवाये चलो हो
रखना है कहीं पांव तो रक्खो हो कहीं पांव
चलना जरा आ जाये तो इतराये चलो हो
दीवान ए गुल क़ैदी ए जंजीर है और तुम
क्या ठाठ से गुलशन की हवा खाये चलो हो
मय में कोई ख़ामी है न साग़र में कोई खोट
पीना नहीं आये है तो छलकाये चलो हो
हम कुछ नहीं कहते हैं, कोई कुछ नहीं कहता
तुम क्या हो तुम्हीं सबसे कहलवाये चलो हो
ज़ुल्फ़ों की तो फ़ितरत है लेकिन मेरे प्यारे
ज़ुल्फ़ो से भी ज्यादा बलख़ाये चलो हो
वो शोख़ सितमगर तो सितम ढ़ाये चले है
तुम हो के कलीम अपनी ग़ज़ल गाये चलो हो