पूर्व आईपीएस ध्रुव गुप्त पूछ रहे हैं कि बाहुबली शहाबुद्दीन की रिहाई पर इतनी हायतौबा क्यों मची हुई है ? वे दोषमुक्त होकर बाइज़्ज़त बरी नहीं हुए है, सिर्फ ज़मानत पर कुछ शर्तों के साथ बाहर आए हैं।
जेल और ज़मानत स्वाभाविक न्यायिक प्रक्रियाएं हैं। जमानत हर व्यक्ति का अधिकार है जबतक वह अंतिम रूप से दोषी साबित नहीं हो जाता। फांसी की सज़ा पाए व्यक्ति को भी क़ानून जमानत का अधिकार देता है अगर उसकी अपील बड़े न्यायालयों में लंबित हैं। शहाबुद्दीन को निचली अदालतों द्वारा कई मामलों में सजा सुनाई गई है जिनकी अपील उच्च न्यायालय में लंबित हैं।
उच्च न्यायलय ने सज़ा को बरक़रार रखा तो वे फिर जेल जाएंगे। या उनका कोई दूसरा केस ट्रायल के लिए खुला तो उन्हें फिर न्यायिक हिरासत में भेज दिया जाएगा। जमानत की अवधि में उनसे कोई अपराध हुआ तो उनकी ज़मानत रद्द कर दी जा सकती है। किसी भी नए अपराध के बाद उनका ज़मानत का रास्ता हमेशा के लिए बंद हो जाएगा। सियासी वज़हों से सामान्य न्यायिक प्रक्रियाओं पर इस तरह सवाल खड़ा करना एक अस्वस्थ परंपरा है।
जेल से बाहर आने पर उनका लोगों की भीड़ ने जैसा शाहाना स्वागत किया, वह अब हैरान नहीं करता। किसी भी दल या समुदाय के बाहुबलियों के लिए पलक बिछाए लोगों का हुज़ूम अब एक आम मंज़र है। अपराधियों का यह महिमामंडन अपराध को पांव धरने को ज़मीन ही नहीं मुहैय्या कराता, नए लोगों को अपराध की दुनिया की और तेजी से आकर्षित भी करता है। मगर इसके लिए हमारे सिवा कौन ज़िम्मेदार है ?
वैसे बिहार अब शहाबुद्दीन युग से आगे निकल चुका है। अब नए-नए बाहुबली हैं, नए-नए खेल हैं, नए-नए गॉडफादर हैं। हर राजनीतिक दल के पास अपने-अपने शहाबुद्दीन हैं। शहाबुद्दीन अपनी खोई ज़मीन तलाशना भी चाहें तो अपराध की काली दुनिया में उन्हें नए सिरे से अपनी प्रासंगिकता साबित करनी होगी।
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