गांधी शांति एवं स्मृति प्रतिष्ठान की निदेशक एवं सुप्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता मणिमाला प्रखर पत्रकार और मानवाधिकार आंदोलन में सक्रिय रही हैं। उनसे पत्रकार अनीश अंकुर ने गांधी, खादी, स्वावलंबन जैसे मुद्दों पर बातचीत की। मणिमाला ने साफ शब्दों में कहा कि हमारी नीतियों ही हमारी जरूरतों के अनुरूप नहीं हैं। उन्होंने स्वायतता को लेकर सवाल उठाए।
मणिमाला से अनीश अंकुर की बातचीत
प्रश्न- आपकी संस्था ने दलितों को लेकर काफी काम किया है। इधर दलितों के बीच जो आयोजन हुए उसका उसका कैसा प्रभाव पड़ रहा है। पहले उनको हरिजन कहा जाता था, अब दलित कहा जाने लगा है। दलितों के बीच जो आपकी पहलकदमी है, उसका कैसा अनुभव रहा है।
मणिमाला- देखिए गांधी जी ने 1932 में ‘हरिजन सेवक संघ’ बनाया। गांधी जी को बंटे समाज को समझने में थोड़ा वक्त लगा। पहले उनको लगता था कि ये काम का बंटवारा है और समाज में काम का बंटवारा हो तो समाज ज्यादा ठीक से ट्रैक पर चलता है। कुछ दिन के बाद उनको समझ आ गया कि ये शोषण का हथियार है। ये काम का नहीं, इंसानों का बंटवारा है। एक खास समुदाय को जन्म के आधार पर अवसरों से वंचित करता है तो जाति व्यवस्था के वे खिलाफ हो गए। उनको लगा कि नहीं वो भी भगवान का बनाया हुआ है और उसे भी बराबरी का हक मिलना चाहिए। तो उन्होंने अस्पृश्यता के खिलाफ आंदोलन चलाया। उन्होंने आई.टी.आई स्थापित किया। वो देश का पहला आई.टी.आई था जो गांधी जी ने बनाया। वहां भी कई तरह की शिक्षा दी जाती थी। बहुत सारी मशीनरी की, बहुत सारे हरिजन देश भर से आते थे, क्योंकि देश भर के स्कूलों में पढ़ने नहीं दिया जाता था। तो ये लोग वहां गए पढ़े और बहुत बड़े-बड़े आदमी बनकर वहां से निकले। 1977 में जब मोरारजी भाई देसाई आए तो उस इंस्टीट्यूट को बंद कर दिया। आज अगर वो रहता तो सबसे ज्यादा फलने-फूलने वाला आई.टी.आई रहता। अपने जीवन के अंत में जब वो नोआखाली के दंगों के बीच से लौटते हैं तो जाकर पोचकईया रोड के हरिजन बस्ती में रहते हैं। तो जो व्यक्ति जातिवाद को काम का बंटवारा कहता है वो जैसे-जैसे अपने अंत की ओर जा रहा है वो जाति सोपान को पाप कहता है। यहां तक कहा कि लगता है कि ऊंची जात में पैदा होकर हमने पाप कर दिया और इस पाप का प्रायश्चित होना चाहिए और उन्होंने हरिजनों के बीच काम करना शुरू कर दिया, संस्थाएं बनायीं। उनसे लुई फिशर ने पूछा कि अगले जन्म में आप क्या बनना चाहेंगे, गांधी ने कहा मैं भगवान से प्रार्थना करूंगा कि अगले जन्म में वे भंगी बनाए और औरतों के बीच यानी भंगी औरत बनाए। यानी अंतिम जन बनाए। ताकि इस जन्म में मुझसे जाने-अनजाने पाप हो गया हो अगर या जाने-अनजाने शक्ति मुझे समाज से मिल गयी हो उसका प्रायश्चित हो सके। वो आदमी जिसने अपने जीवन के आखिरी दिन हरजनों की सेवा में लगाया।
ये सारी चीजें हमें धरोहर के रूप में मिली हैं। उनकी तमाम जिंदगी और बाकी सारे विचार। तो हमें वहां से शुरू करनी चाहिए, जहां से वो छोड़ कर गए है। और ये संदेश लोगों में जाना चाहिए।
देखिए गांधीवादी संस्थानों में हरजिनों के बहुत कम जगह मिली है या ना के बराबर मिली है। जबकि वे उनके प्राथमिक जरूरत थे। इसलिए उनके बीच काम करने की आवश्यकता है। दलितों के बीच ये बात बैठती जा रही है , गयी है कि गांधी जी उनके खिलाफ थे। गांधी और आंबेडकर एक दूसरे के शत्रु नहीं हैं, एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों समाज को दो जगहों से समाज को देख रहे थे और अपनी बात कह रहे थे। गांधी का समाज गैरदलितों का समाज था और आंबेडकर जहां थे वो दलितों का समाज था। आंबेडकर का विचार था कि ‘शिक्षित बनो, संगठित बनो और संघर्ष करो।‘ अब आप सोचिए सारे समाज में सिर्फ संघर्ष हो, आप बोलिए लेकिन उसको सुनने वाला कोई न हो। तो गांधी जी ने संवाद व विमर्श के लिए जगह बनायी। शिक्षित बनो, संगठित हो, संघर्ष भी करो, लेकिन आपस में बातचीत भी करो। तभी बदलेगा समाज और समाज बदलेगा तभी दलितों की मुक्ति संभव है। यदि समाज यही रह जाएगा तो सिर्फ लड़ते रह जाओगे।
यदि सशक्तीकरण नहीं हो, समाज दलित सशक्तीकरण केा स्वीकार भी करे, दलितों केा स्वीकृति भी दे। दलित नेतृत्व स्वीकार्य हो इसके लिए समाज बदलना होगा। और समाज तभी बलेगा जब पूरा समाज बदलेगा। ये दोनों गांधी और आंबेडकर के प्रयास दो पक्ष से जुड़कर एक ही बात कहते है।ये बात समाज के लोगों के बतलाना है अनावश्यक विवाद कम से कम हो। इसके लिए हमने इस चीज को पहलकदमी की। क्योंकि दलितों को लेकर गांधी जी और उनमें बहुत किस्म की गलतफहमियां हैं। कुछ अपने आप फैली और कुछ फैलायी गयी।
प्रश्न– गांधी जी ने खादी की शुरूआत की। वो स्वदेशी का भी प्रतीक था। साथ ही हिंदुस्तान की आबोहवा के अनुकूल भी है। अब खादी की मार्केटिंग भी हो रही हैं। फैब इंडिया वगैरह। अभी खादी को लेकर पुरानी संस्थाएं जर्जर हालत हैं, दूसरी तरफ उसी मार्केटिंग भी हो रही है। खादी को लेकर जो पुराने मूल्य रहे हैं स्वदेशी,संप्रभुता, सस्ता व सुलभ था। अभी खादी की स्थिति को कैसे देखती हैं ?
मणिमाला- अभी खादी की स्थिति के लेकर कुछ कहना ठीक नहीं है। खादी की हालत, खराब हो गयी थी। कुछ तो लोगों को ये लगा कि अब, जब आजादी मिल गयी होती तो खादी की अब क्या जरूरत है? जबकि खादी का आजादी से कोई बहुत ज्यादा रिश्ता नहीं था, बल्कि स्वावलंबन और देश की लेना- देना अर्थव्यवस्था से ज्यादा था। सबके हाथ में रोजगार ये इसका मुख्य आधार था। दूसरा था स्वावलंबन था। अपना कपड़ा आप पहन लो। अपना कपड़ा आप बुनो और पहन लो। हम कहते हैं भोजन, वस्त्र आवास। तो वस्त्र के मामले में तो स्वावंलंबी हो जाओ। उनकी चिंता थी कि आम आदमी आजाद कैसे हो ? सिर्फ गुलामी से, अंग्रेजों से आजादी मिले ये उनकी चिंता न थी। उनकी चिंता थी कि आम आदमी का, दलित का, शोषण न हो इसके रास्ते क्या हो सकते थे ? कैसे समाप्त किया जाए ? जितना ज्यादा वो स्वावलंबी और शक्ति संपन्न होगा, उतना ही वो गुलामी को दूर करेगा।
भोजन के लिए सबसे नीचे के वर्ग के लोगों पर ही आप निर्भर है क्योंकि उपजा के तो वही देता है । जिस दिन वो चाहे मार्केट में अपने सामान नहीं जाने देगा। थोड़ा सा वो संगठित हो जाए अपना प्रोडक्ट नहीं जाने देगा बाहर। मकान के मामले में आम आदमी स्वावलंबी था कभी जमीन का अधिग्रहण नहीं होता था, जब भागम-भाग शहर की तरफ नहीं लगी थी क्योंकि खेती के प्रोडक्ट से वे अपना आशियाना बनाता था। रह गया कपड़ा इसके लिए वो विदेशों पर निर्भर था, बाहरी तत्वों पर निर्भर था । गांधी जी ने कहा खुद कपड़ा बुन लो। इन तीनों में तुम हो गए आजाद। अब बाकी चीजों के बारे में सोच सकते हो। इसके साथ उन्होंने ‘हिंद स्वराज’ की भी कल्पना की थी। ग्रामसभा सबसे मजबूत होगी। ग्रामसभा ही सारे फैसले किया करेगी। उन्होंने इस पार्लियामेंट को स्वीकार नहीं किया था। ये लोकतंत्र इस देश के लिए नहीं है। यहां तो ग्रामसभा ही होगी और संसद सिर्फ विदेश नीति और करेंसी पर फैसला करे और बाकी फैसला सब ग्रामसभा करे। ग्रामसभा का सदस्य सब आम आदमी हो। उसमें चरखा था । एक छोटी सी मशीन जो घर में बैठकर वो खुद ही बना लेगा। चरखा चलाएगा वो खुद ही कपड़ा बुन लेगा। उसकी सारी जरूरतें स्थानीय स्तर पर ही पूरी हो जाएंगी तो वो स्वस्थ दिमाग से सोचेगा।
लेकिन उस संदर्भ में खादी को काट दिया गया। खादी को भी एक इंडस्ट्री के रूप में जमाने की कोशिश होने लगी। बड़ी भारी इंडस्ट्री के रूप में फिर उसमें भी बिचैलया आ गए। जो बुनकर थे वे वहीं आ गए । वो भूखमरी के कगार पर आ गए। जो सिस्टम के बिचौलिए थे वे संपन्न होते चले गए। मैं खादी पहनती हूं और इसका प्रचार भी करती हूं, क्योंकि आम आदमी की अर्थव्यवस्था है खादी। आम आदमी हाथ न चलाए तो खादी न चलेगा। और लाखों-करोड़ों हाथ एक साथ चलते हैं तो खादी बनता है। कोई खाली हाथ न रहे। क्योंकि जैसा कि पुरानी कहावत है कि खाली मन शैतान का अड्डा। फिर अपना बुना हुआ कितना अच्छा लगता है। जैसे आप दूसरों को बनाकर खिलाते हो तो कितना अच्छा लगता है। वैसे ही खुद बुने हुए कपड़ा के साथ भी है। आपका स्वावलंबन और स्वाभिमान का लेबल क्या होगा। फिर एक साथ मिलकर ये काम करते हैं। एक अकेला नहीं कर सकता। परस्पर एक दूसरे के साथ मिलकर चलना आपकी जरूरत बन जाएगी। एक बार आप खादी पहन लेंगे तो फिर दूसरी चीज पहनना आप पसंद नहीं करेंगे। खादी में इतनी सॉफ्टनेस रहती है। दिनभर आप सॉफ्ट चीज के संपर्क में रहते हो तो वो सॅाफ्टनेस आप पर भी प्रभाव डालता है। आपको भी सॉफ्ट बनाती है। किसी चीज को सॉफ्टली कैसे हैंडल किया जाए। चरखा चलाने में जितना ध्यान, दोनों हाथों का बैलेंस, धागा न टूटे, किस रफ्तार से चक्का चलाएं कि धागा न टूटे तो आपके रफ्तार को कंट्रोल करता है। इतनी तेज न चलो कि कोई आपकी गाड़ी के नीचे आ जाए। उतनी ही तेजी से चलाओ कि धागा न टूटे। इस धागे पर बड़े-बड़े कवियों ने, रचनाकारों ने बहुत कुछ लिखा है। एक से एक कविताएं लिखी हैं। एक तो जो बेहद मशहूर हैं, जिसे आप हम सब जानते हैं।
रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ों चटकाए
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाए।
और वो धागा आप बनाते हैं। गांधी जी ने उस समय कहा था कि ‘ये धागा, देश को जोड़ने वाला धागा है’। फिर ये धागा कच्चा भी है खींचोगे तो टूट जाएगा। इसलिए इसे सॉफ्टली हैंडल करे वैसे ही जैसे समाज को सॉफ्टली हैंडल करो। बहुत सारे मैसेजेज इस चरखे के साथ आ सकते हैं। जब हमने चरखा यज्ञ किया तो देश भर से 600 चरखे आए। इतना वो उन्नत हो गया है कि 32 पैडल के चरखे बिना बिजली के एक महिला चला आ रही है। 32 पैडल पर सूता आ रहा है। तो उसमें भी विकास के बहुत सारी संभावनाएं हैं।
आज इतना सारा हाहाकार मचा हुआ है बिजली के लिए । कोयला नहीं है, सारी नदियों को हमने बर्बाद कर दिया बिजली के लिए, फिर भी हमारी जरूरते पूरी नहीं हो रही है। तो हाथ से बने कपड़े पहनेंगे तो बिजली की खपत काफी कम हो जाएगी। उन्होंने मशीन का विरेाध नहीं किया । उन्होंने उस मशीन का विरोध किया जो हाथ के रोजगार छीनता है और जो नाहक बिजली मांगता है। अब जैसे पांव से सीने वाली मशीन कपड़े की उसका गांधी जी ने विरोध नहीं किया। देखिए पांव से चलने वाली मशीन है बिजली नहीं मिलती है उसको लेकिन कितना तेज रफ्तार से काम करती है। यह श्रम को रफ्तार देता है, श्रम को सम्मान देता है।
प्रश्न– अभी आपने दलितोद्धार वाली बात की, पहलकदमी की बात की, अभी पूरा हिंदुस्तान जिस मोड़ पर है। गांधी के बाद में जिस तरह बिनोबा जैसे, जेपी जैसे लोग आए। भूदान आंदोलन जो गांधीवादी तौर-तरीकों पर चलने वाला आंदोलन है। जे.पी को गए 40 साल हो गए। अभी के दौर में हिंदुस्तान का व्याख्यायित करना चाहे तो अभी गांधी दर्शन हिंदुस्तान की किस चीज को सबसे अच्छे से संबोधित कर सकता है ?
मणिमाला- देखिए बहुत सारी चीजें हैं लेकिन अभी तो हिंदुस्तान सिर्फ नाम है हिंदुस्तान, हिंदुस्तान है नहीं। हिंदुस्तान कुछ अमेरिका है, कुछ चीन है। इसके बीच हिंदुस्तान ढूढ़िये कहां मिलेगा ? गांधी के सपनों का भारत तो है नहीं ? हम इसे टुकड़ों-टुकड़ों में कर के किसी-किसी के हवाले कर रहे है। हर अगले दिन एक टुकड़ा किसी न किसी के हवाले करते जा रहे हैं। मुझे लगता है अगर एक बात कहनी होगी गांधी जी के हवाले आज के हिंदुस्तान के बारे में, तो स्वावलंबन के संदर्भ में देखना होगा। इस देश के लोग कितने स्वावलंबी हुए? कितने सशक्त हुए ?आजादी के दौरान जब सबकुछ चल रहा था तो फिल्मों में भी एक नया उत्साह आया था। बहुत अच्छे-अच्छे गीत बने थे। एक गीत मुझे याद आ रहा है।
मत कहो कि सिर पर टोपी है
कहो कि सिर पर हमारे ताज है
ये चमन हमारा अपना है
इस देश पर अपना राज है
सरे संसार की आंख हम पे लगी
हमारा कहां स्वदेश और सुराज है।
अब तो देश ही अपना नहीं रहा। जब आप अपनी पॉलिसी ही खुद नहीं बना सकते स्वतंत्र रूप से, तो स्वराज की क्या बात है ? अर्थव्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था,स्वास्थ्य व्यवस्था राजनैतिक व्यवस्था। ये पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी तो ब्रिटिशों की देन है। ते हमारा तो सब कुछ आयातित है। अपने भरोसे तो खड़े ही नहीं हैं।