कल तक आलीशान बंगले की शान, लाल बत्तियों का काफला और लाव लशकर लेकिन बिहार भाजपा के मंत्री आज सड़क पर आ खड़े हैं इस बदलाव से रू ब रू कराती इर्शादुल हक की रिपोर्ट
कल्पना कीजिए कि यह नजारा किनता कष्टकारी रहा होगा जब एक ही झटके में लिए गये राजनीतिक फैसले ने सिंहासन पर बैठे महारथियों को सड़कों पर आंदोलन करने पहुंचा दिया था. 8 सालों तक बिहार में सरकार का हिस्सा रही भारतीय जनता पार्टी अचानक विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी बन गयी थी. मजे की बात तो यह है कि लोकतंत्र में ऐसे परिवर्तन आम तौर पर चुनाव के बाद होते हैं, पर इस बार ऐसा नहीं था. नीतीश कुमार ने अपनी सहयोगी दल भारतीय जनता पार्टी के 11 मंत्रियों को मंत्रिमंडल से बर्खास्त करने की अप्रत्याशित सिफारिश राज्यपाल से कर दी थी.
नीतीश का यह फैसला एक दम उम्मीदों के बरअक्स था. न तो इस पर कभी राजनीतिक टीकाकारों ने सोचा था और न ही खुद भारतीय जनता पार्टी के शोरमाओं ने. क्योंकि बात नरेंद्र मोदी को लेकर बिगड़ी थी.नीतीश कुमार, नरेंद्र मोदी को भाजपा चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाये जाने से नाराज थे. तो ज्यादा से ज्यादा उन्हें एनडीए से अलग हो जाना था. और फिर अपना बहुमत साबित करना था. पर नीतीश द्वारा भाजपा मंत्रियों को बर्खास्त करने की सिफारिश करना और इसके पीछ यह तर्क देना कि मंत्री रहते हुए कैबिनेट की मीटिंग में हाजिर न होना साथ साथ नहीं चल सकता, भाजपाइयों को नागवार लाग. बर्खास्तगी की सिफारिश करते समय नीतीश ने यह भी कहा कि उनके पास यही रास्ता था कि उन्हें बर्खास्त कर दिया जाये.
अपमान के घोट
भारतीय जनता पार्टी के लिए यह फैसला अप्रत्याशित तो था ही. साथ ही अपमान के घोट पीने जैसा भी था. एक दिन पहले तक नीतीश मंत्रिमंडल में नम्बर दो की पोजिशन धारण करने वाले सुशील कुमार मोदी इस फैसले से आहत-मर्माहत थे. मोदी की व्यथा खुद उनके इस बयान से जाहिर होती है. वह कहते हैं. “यह हमारी पार्टी का और हमारे मंत्रियों का अपमान है”. वह दो कदम आग बढ़कर दोहराते हैं “यह हमारे साथ विश्वासघात है”. पर भले ही मोदी और उनके सहयोगी जो भी कहें पर नीतीश के इस फैसले ने भाजपा कोटे के सत्ता सिंहासन पर बैठ 11 मंत्रियों को सड़क के संघर्ष के रास्ते पर भेज दिया था.
वह जून की उन्नीस तारीख थी. जब बिहार विधानसभा में सत्तापक्ष का एक सहयोगी खुद विपक्ष की भूमिका में था. शुरूआत सदन से हुई थी. मोदी, प्रेम कुमार, नंदकिशोर यादव, अश्विनी चौबे, गिरिराज सिंह, जनार्दन सिंह सिग्रवाल और सुनील कुमार पिंटू सरीखे मंत्री, नेता की भूमिका में आ गये थे. जिन लोगों ने पिछले आठ सालों में नंदकिशोर यादव को सार्वजनिक तौर पर औपचारिक शब्दों के अलावा कुछ भी बोलते हुए देखा-सुना नहीं था, वे इस बात पर दंग थे कि विधानसभा में उन्होंने धमाकेदार भाषण करके नीतीश की बोलती बंद कर दी. दूसरे ही दिन छोटे मोदी सड़क पर थे. वह विश्वासघात दिवस मनाने के जोश से लबरेज थे. न लाल बत्तियों का काफिला और न ही सायरन की सनसनाती आवाज. सरकारी सुविधायें तो नदारद थीं हीं. यह पहला आंदोलन था जब भाजपा जद यू आमने सामने थे. सड़कों पर उत्पात की स्थिति थी. दोनों दल के नेता आपस में सिरफुटौवल पर आमादा थे.
सत्ता से हटते ही उथल पुथल
भापजा नेताओं का सत्ता से सड़क पर आने की कहानी इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि सरकार से अलग होने के मात्र दो हफ्ते में बिहार में भारी उथल-पुथल मच जाता है. 24 जून को पश्चिमी चम्पारण के बगहा में पुलिस फायरिंग में थारू जनजाति के छह लोगों की जान चली जाती है. इस कांड के बाद बिहार विधानसभा में विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के लिए पहला बड़ा मुद्दा मिलता है. मोदी अभी सत्ता की रसूख से अलग ही हुए थे कि उन्हें एक ऐसी घटना से साबका पड़ा जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था. वह राबड़ी देवी सरकार के दौर में विपक्ष के नेता रहने का अनुभव जानते थे. सो जनते थे कि किस मुद्दें को कितना उछाल देना है. इसलिए बगहा कांड ने मोदी को अचानक रणक्षेत्र में जाने को प्रेरित कर दिया. वह 225 किलोमीटर का सफर तय कर के अचानक अमवा कटहरवा गांव पहुंचते हैं. नीतीश सरकार के खिलाफ गरजते हैं. मोदी, गिरिराज सिंह और अश्विनी चौबे का यह गरजन ठीक वैसे ही होता जिसकी एक सश्कत विपक्ष से उम्मीद की जा सकती है. मीडिया भी मोदी के इस गर्जन को तवज्जो देता है. कुछ दिन पहले तक राजद मुख्य विपक्षी दल हुआ करता था. दो साल पहले भी ठीक ऐसी घटना फारबिसगंज के भजनपुरा में घटी थी. वहां भी पुलिस ने निहत्थे लोगों को मार गिराया था. पर वह शोर दब के रह गया था. लेकिन मोदी ने एक सशक्त विपक्ष के रूप में धमाकेदार रूप से कमान हाथ में ले लिया था. उन्होंने सरकार को जबर्दस्त तरीके से घेरा. यह विपक्ष के आक्रमक रुख का ही नतीजा था कि सरकार दबाव में आ जाती है. त्वरित जांच होती है. पुलिस अधिकारी प्रथम दृष्टि दोषी पाये जाते हैं, निलंबित होते हैं.
लेकिन मोदी के इस विरोध ने भाजपा की कलई को खोल देने की वजह भी दे दिया है. फारबिसगंज के भजनपुरा पुलिस गोली कांड में भाजपा के एक विधानपार्षद पर आरोप लगा था. तब भाजपा सत्ता में थी.आरोप लगा कि बगहा गोली कांड में जिस तरह मोदी और भाजपा ने चिंढार मारा, उसके ठीक उलट भजनपुरा कांड में वह पक्षात करने में लगी रही. इस आरोप पर वह कुछ विचलित भी हुई. लेकिन एक मजबूत विपक्ष की भूमिका निभाने की शुरूआत तो हो ही गयी थी.
लेकिन 7 जुलाई 2013 बिहार के घटनाक्रम के इतिहास में अपनी तरह का पहला दिन बन गया. मीडिया ने बोध गया विस्फोट को पहला आतंकी हमला कह कर प्रचारित किया. इस घटना ने मोदी और उनकी पार्टी को और ऊर्जान्वित कर दिया. वैसे भी बौध धार्मिक स्थल पर हुए इस विस्फोट ने खुद ही इस खबर को अंतरराष्ट्रीय महत्व प्रदान कर दिया था. उस पर मोदी और उनकी टीम की विपक्ष की भूमिका भी स्वाभाविक रूप से मीडिया के आकर्षण का केंद्र बननी ही था. मोदी अपने सहोयगी नेता प्रेमकुमार के साथ बोध गया पहुंचते हैं. लौटते हैं तो कुछ रणनीति के साथ. वह एक दिन के अनशन पर कूदते हैं. पटना के गांधी मैदान के उत्तरी छोर पर सामयाने में अनशन पर कभी बैठे, कभी लेटे मोदी के चेहरे से संघर्ष की तैयारी झलकती है. जुलाई की उमस भरी तीखी गर्मी की दोपहरी का यह नजारा है. शाम होते होते इस अनशन पर मोदी का साथ देने राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह, , अरुण जेटली और शाहनवाज हुसैन सरीखे नेता पहुंचते हैं. नतीश के खिलफ संघर्ष जारी रखने का ऐलान होता है. नीतीश कुमरा को सबक सिखाने का प्रण लिया जाता है. सत्ता से बेदखली का बदला लेने की खातिर नीतीश की सत्ता को उखाड़ फेकने की वचनबद्धता दोहराई जाती है. बिहार के नये विपक्षी दल का संघर्ष जारी है, जारी रहेगा.
कठिन दौर बाकी है अभी
पर जिस तरह मोदी ने सशक्त विपक्ष की भूमिका के लिए रांतोंरात खुद को तैयार कर लिया है औपने तरकश के हर तीर निशाना पर छोड़ने में जुटे हैं. लेकिन अब आने वाले दिनों में नीतीश के तरकश से कुछ ऐसे तीर निकलने की तैयारी में बैठे हैं जो मोदी और उनके सहयोगियों कष्टकारी साबित हो सकते हैं.
आने वाले दिनों में नीतीश इस तैयारी में हैं कि वह मंत्रिमंडल का विस्तार करेंगे. नीतीश के बारे में यह राय है कि वह दोस्ती और प्रतिद्वंदिता को काफी निजी स्तर पर लेते हैं. सो चर्चा है कि सुशील मोदी, नंदकिशोर यादव, गिरराज सिंह, जनार्दन सिंह सेग्रवाल सेरीखे नेताओं को जो फिलहाल सबसे बड़ा झटका लगने वाला है वह है उन्हें सरकार की आलीशान कोठियों से बेदखल होना. कहा तो यह जा रहा है कि भाजपा के कई पूर्वमंत्रियों को इस बात की भनक तक लग गयी है. और उन्होंने इन आलीशान बंगलों से अपना बोरिया-बोस्तर समेटना शुरू भी कर दिया है.