केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा ने नौकरशाही डॉट इन से साक्षात्कार में कहा है कि बीजेपी के लोग अगर साम्प्रदायिक मुद्दो उठायेंगे तो उन्हें चुनाव में उसका खामयाजा भुगतना पड़ेगा.
नौकरशाही डॉट इन के सम्पादक इर्शादुल हक को दिये एक साक्षात्कार में कुशवाहा ने यह भी स्वीकार किया है कि लालू-नीतीश के मिल जाने के बाद अब विधानसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन को कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी. उन्होंने कहा कि एनडीए गठबंधन इस बात को ध्यान में रख कर रणनीति बना रहा है.
कुशवाहा ने दो राज्यों उत्तर प्रदेश और जम्मू कश्मीर का उदाहरण देते हुए बताया है कि इन राज्यो में चुनाव के दौरान साम्प्रदायिक मुद्दे उठाये गये तो भाजपा को चुनाव में नुकसान उठाना पड़ा. उन्होंने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि भाजपा के नेता बिहार में ऐसे मुद्दों से बचेंगे.
विधानसभा में उनकी पार्टी कितनी सीटों पर लड़ेगी यह बात अभी फाइनल नहीं हुई है लेकिन हमने एनडीए की बैठक में कहा है कि अब चुनाव नजदीक आ रहा है इसलिए हमें इस पर जल्द फैसला करना चाहिए. कुशवाहा ने कहा कि लोकसभा में हम जितनी सीटों पर लड़े थे, विधानसभा चुनाव में टिकट बंटवारे का वह आधार नहीं होगा. उन्होंने कहा कि सीट शेयरिंग पर फाइनल बात करने से पहले हम 20-21 जून को अपनी पार्टी की राज्यस्तरीय बैठक हाजीपुर में कर रहे हैं. इसमें हम पार्टी कार्यकर्ताओं से फिडबैक लेंगे और उसी आधार पर तय करेंगे कि हम कितनी सीटों से चुनाव लड़ सकते हैं.
लालू-नीतीश के एक होने का मनोवैज्ञानिक असर एनडीए पर क्या पड़ा है?
यह बात ठीक है कि दोनों अगर अलग-अलग लड़ते तो बात दूसरी होती और रास्ता थोड़ा आसान होता. इस बात में कोई शक नहीं कि उनके साथ हो जाने से हमलोगों को ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी. ऐसे में हमें भी इसी आधार पर अपनी रणनीति बनाने की जरूरत पड़ रही है. लेकिन बिहार के लोगों ने एक तरह से मन बना लिया है एनडीए के पक्ष में. और एनडीए की सरकार ही बनेगी बिहार में. लोगों को पता है कि दिल्ली और बिहार दोनों जगह एनडीए की सरकार होगी तो विकास का काम ज्यादा होगा.
दिल्ली में मोदी का चेहरा काम नहीं आया तो बिहार में कैसे कह रहे हैं कि एनडीए की सरकार बनेगी?
देखिए दिल्ली की परिस्थिति अलग थी और बिहार की अलग. दिल्ली में एक नया चेहरा (केजरीवाल) दिख रहा था लेकिन यहां नया चेहरा कोई दिख रहा है तो एनडीए का. बाकी पार्टियों में सब पुराने चेहरे हैं. पुराने चेहरे की तरफ लोग आकर्षित नहीं होंगे.
नया चेहरा से क्या तात्पर्य है?
नया चेहरा मतलब, यह गठबंधन नया है. एक तरह से बिहार में एक्सपेरिमेंट किया हुआ यह गठबंधन सिर्फ लोकसभा के लिए है. विधानसभा में यह गठबंधन नया है. हमारी पार्टी तब नयी थी. एलजीपी कहीं और थी. लेकिन अब यह गठबंधन नये स्वरूप में लोगों को सामने है.
दिल्ली और बिहार का फर्क यह भी है कि वहां मुसलमान 9-10 प्रतिशत मात्र हैं लेकिन बिहार में 16.5 प्रतिशत हैं तो क्या भाजपा गठबंधन यह उम्मीद करता है कि वह मुसलमानों का वोट अपनी तरफ खीच पायेगा?
निश्चित रूप से हम उम्मीद करते हैं. बिहार में, जहं तक मुसलमानों की बात है, उनके यहां भी गरीबी, बेबसी, बेरोजगारी है. उन्हें भी रोजगार चाहिए, अच्छा जीवन स्तर चाहिए औऱ इसकी आकांक्षा उनकी भी है. मुसलमान भी उस परिस्थिति से ऊबरना चाहते हैं. अब पुरानी बातों के आधार पर लोग वोट ले लें, ऐसा संभव नहीं है. साम्प्रदायिकता-साम्प्रदायिकता का शोर करके कुछ लोग मुसलमानों का वोट लेना चाहते हैं लेकिन अब हालात बदल गये हैं और मैं समझता हूं कि बिहार के मुसलमान इस झांसे में नीहं आने वाले. कहां कहीं साम्प्रदायिकता का खतरा है?
खतरा है नहीं? पिछले एक साल में जब से मोदी की सरकार बनी है तबसे लव जिहाद, घर वापसी और धर्मांतरण के मुद्दे के कारण मुसलमानों में काफी डर का माहौल है.
देखिए मैं एक चीज स्पष्ट कर दूं. एनडीए के लोगों ने इन मुद्दों को नहीं उठाया है, बल्कि भारतीय जनता पार्टी के लोगों ने उठाया है. लेकिन बिहार पूर्ण रूप से अछूता रहा है. और जिन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी के लोगों ने इन मुद्दों को उठाया है, उसका खामयाजा भाजपा के लोगों को भुगतना पड़ा है.
तो आप मान रहे हैं कि बीजेपी के लोग अगर ऐसे मुद्दे( साम्प्रदायिक) उठायेंगे तो उन्हें खामयाजा भुगतना पड़ेगा?
निश्चित रूप से. यह बात हमने पहले भी कही है. कश्मीर चुनाव के समय ऐसे मुद्दे उठे जिसके चलते कश्मीर घाटी में भाजपा एक भी सीट नहीं जीत पायी. उत्तर प्रदेश में ऐसे मुद्दे उठाये गये तो वहां हुए उपचुनाव में भाजपा को काफी नुकसान हुआ. प्रधानमंत्री जी भी इससे काफी दुखी थे. उन्होंने लगातार कहा कि सिर्फ विकास को मुद्दा बनाना चाहिए. इस तरह की बातें उठा कर विपक्ष को मुद्दा नहीं दना चाहिए. हम समझते हैं कि भाजपा के मित्र इन बातों पर गौर करेंगे.
लेकिन पिछले कुछ हफ्तों में बिहटा, राजगीर और मोतिहारी के ढ़ाका विधानसभा क्षेत्र में साम्प्रदायिकता का खेल हुआ है और इसमें स्थानीय नेताओं के शामिल रहने की बात सामने आयी.
देखिए इस तरह का खेल जहां भी लोग खेल रहे हैं उससे बहुत नुकसान होगा. भले ही किसी एक क्षेत्र में इस तरह के प्रयास से कुछ लोग लाभ ले लें लेकिन पूरे बिहार के संदर्भ में देखें तो इससे नुकसान होगा. कुल मिला कर अगर इस तरह के प्रयास किये जाते हैं तो यह अब्जेकशनेबल है. किसी की जान के बदले वोट की राजनीति नहीं होनी चाहिए.
अगर एनडीए गठबंधन मुसलमानों का वोट लेना चाहता है तो उसे राजनीतिक नुमाइंदगी भी तो देनी चाहिए. लोकसभा चुनाव में एनडीए ने 54 में से मात्र दो मुस्लिम कंडिडेट को टिकट दिया.
देखिए इस मामले में एनडीए की तरफ से हम बात नहीं कर पायेंगे. हमारी पार्टी जब तय करेगी कि हम कितनी सीटों पर लड़ेंगे. इसके बाद हम आगे की बात तय करेंगे. लेकिन हम उम्मीदवार की उपलब्धता पर भी तय करेंगे. व्यावहारिक रूप से यह संभव नहीं हो पाता कि किस समुदाय और किस जाति को कितनी सीट दी जाये लेकिन यह निश्चित है कि हम अल्पसंख्यकों को उचित प्रतिनिधित्व देंगे.