एनडीए के चारों घटक दलों में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। संयुक्त चुनाव अभियान के दावे के बीच अपना-अपना चुनाव प्रचार शुरू हो गया है। इसमें भाजपा सबसे आगे होगी, स्वाभाविक है। इसका असर भी दिखने लगा है। भाजपा के 160 उम्मीदवार हैं और उसका राज्य व्यापी असर है। लेकिन उसके सहयोगी दल लोजपा, रालोसपा और हम के उम्मीदवार बिखरे हुए हैं। सहयोगियों का प्रचार अभियान भी अपने ही उम्मीदवारों के क्षेत्र में व्यापक व असरकारी हो सकता है।
वीरेंद्र यादव
भाजपा ने सहयोगियों को दरकिनार कर दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र सभी घटक दलों के स्टार प्रचार हैं और सबके लिए वोट मांगना उनका दायित्व है। लेकिन वे सिर्फ भाजपा के लिए वोट मांग रहे हैं। भाजपा के चुनावी होर्डिंग्स अकेले नरेंद्र मोदी छाये हुए हैं। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह भी अब साथ नहीं दे रहे हैं। होर्डिंग से शाह की तस्वीर की भी विदाई दिख रही है। यह भाजपा की रणनीति हो सकती है कि अकेले नरेंद्र मोदी की तस्वीर व नाम के भरोसे चुनाव में लालू यादव, नीतीश कुमार व कांग्रेस गठबंधन का मुकाबला किया जाए।
मुद्दा गौण
चुनाव में विकास का मुद्दा गौण हो गया है। विकास के दावे बेमानी हो गये हैं। केंद्र व राज्य सरकार के विकास के दावे भी हवा-हवाई होते दिख रहे हैं। बस सब जगह दिख रही है जाति। पार्टी की जाति, उम्मीदवार की जाति, वोटर की जाति। इन्हीं जातियों के जोड़-तोड़ के सहारे चुनाव जीतने के गणित गढ़े जा रहे हैं। नरेंद्र मोदी की तस्वीर की मार्केटिंग भी ‘जातीय बाजार’ को अनुकूल बनाने की रणनीति है। अब देखना है कि वह कितना असरकारक होता है।