बिहार की राजनीति में दो जातियों का अंतर्विरोध साफ-साफ दिखता है। यह अंतर्विरोध सामाजिक और राजनीतिक दोनों स्तर पर नजर आता है। ये जातियां हैं यादव और भूमिहार। दोनों जातियां एक बैनर के तले एक साथ नहीं रह सकती हैं। साथ आ भी गयीं तो लंबे समय तक साथ चल नहीं सकतीं। इन्हीं दो जातियों में सत्ता ‘होने या खोने’ की खुशी या गम देखी जाती है। अन्य जातियां इन्हीं के सुख से सुखी और गम से दुखी होती हैं।
वीरेंद्र यादव
सामाजिक सरंचना का आकलन करें तो सामाजिक ढांचे पर सवर्ण का दबदबा रहा था, उनकी ही प्रताड़ना रही थी। सवर्णों की प्रताड़ना के खिलाफ पिछड़ों में गोलबंदी हुई थी। लेकिन प्रताड़ना का सारा ‘श्रेय’ भूमिहार के माथे पर मढ़ दिया गया। सामंतवाद या प्रताड़ना की बदनामी भी भूमिहार ही झेलते रहे, जबकि राजपूत या ब्राह्मण इससे मुक्त ही रहे। कहीं-कहीं उन्हें भी जिम्मेवार माना गया, लेकिन समग्र रूप से भूमिहार प्रताड़ना के दोषी ठहराए गये।
सवर्णों की प्रताड़ना के खिलाफ मुखर रूप से यादव सामने आ रहे थे। यादव ही सवर्णों के खिलाफ गोलबंदी का नेतृत्व कर रहे थे। पिछड़ों के सामाजिक आंदोलनों की अगुआई कर रहे थे। सवर्णों की सामाजिक सत्ता को चुनौती यादव जाति से मिल रही थी। उसमें कोईरी, कुर्मी या कहार की भूमिका भी थी, लेकिन यादव का विरोध ही दिख रहा था। कालांतर में सामाजिक प्रताड़ना के प्रतीक भूमिहार बन गये, जबकि प्रताडना के खिलाफ लड़ाई के प्रतीक यादव बन गये।
धीरे-धीरे दोनों जातियां राजनीतिक रूप से एक-दूसरे की विरोधी बन गयीं। यह विरोध नब्बे के बाद ज्यादा मुखर हो गया। 1990 के पहले सवर्ण बनाम पिछड़ा की लड़ाई लंबे समय तक चली। समाजवादी राजनीतिक का केंद्र भी सवर्ण बनाम पिछड़ा ही था। लेकिन 1990 के बाद यादव बनाम भूमिहार की राजनीतिक शुरू हो गयी। मंडल आंदोलन ने इस आंच को और हवा दी।
यादव की गोलबंदी जनता दल के साथ हुई तो भूमिहार भाजपा के साथ गोलबंद हो गये। भूमिहार कभी भाजपा का कैडर नहीं था, लेकिन यादव विरोध के नाम पर भाजपा भूमिहारों की पार्टी में तब्दील हो गयी। यादव विरोध के नाम पर ही भूमिहार नीतीश कुमार ढो रहे थे। लेकिन 2015 के विधान सभा चुनाव में नीतीश कुमार के लालू यादव के साथ आते ही भूमिहारों ने नीतीश को छोड़ दिया।
इस यथार्थ को नीतीश भी समझ रहे थे। 28 जुलाई को विश्वासमत पर चर्चा के दौरान मुख्यमंत्री ने कहा कि गांव-गांव में अत्याचार बढ़ गया था। लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि किसका अत्याचार बढ़ गया था। वे अप्रत्यक्ष रूप से यादव जाति पर कटाक्ष कर रहे थे, क्योंकि उन्हें अब भूमिहार की राजनीति करनी थी।
सरकार बदल जाने से व्यवस्था नहीं बदलती है। पदों पर बैठे अधिकारी की वफादारी जरूर बदल जाती है। यही वफादारी दोनों जातियों को आहत या आह्लादित करती है। खुश या गमगीन होने को विवश करती है।