सीबीआई की स्थापना को 50 साल हो गए हैं, परंतु अब तक इसका अपना अधिनियम नहीं बना है। यह संस्था दिल्ली स्पेशल पुलिस इस्टैबलिस्मेंट ऐक्ट-1946 (डीएसपीई) के तहत काम करती है।
उमाशंकर सिंह, पूर्व निदेशक सीबीआई
कमेटी ऑन प्रिवेंशन ऑफ करप्शन, यानी संथानम कमेटी की प्रस्तावना के तहत साल 1963 में इसका नाम विशेष पुलिस संस्थापन से केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) पड़ा। साल 2003 में इसमें एक और परिवर्तन आया, जब सीवीसी ऐक्ट लागू हुआ। इस आधार पर कुछ संशोधन डीएसपीई ऐक्ट में किए गए। संशोधन 14 में एक प्रावधान रखा गया। सरल अर्थों में इस प्रावधान का मतलब निकलता है कि सीबीआई में करप्शन के पर्यवेक्षण की जिम्मेदारी सीवीसी, यानी केंद्रीय सतर्कता आयुक्त को दी गई है। इसलिए इन दिनों जो बहस चल रही है कि सीबीआई की निगरानी कौन करे या यह संस्था लोकपाल के अधीन लाया जाए अथवा ‘इसके’ या ‘उसके’ दायरे में लाया जाए, वह कई मायने में निर्थक-सा मालूम होता है, क्योंकि सीवीसी पहले से ही इस संस्था की निगरानी कर रही है। इस स्थिति में किसी दूसरी निगरानी संस्था की जरूरत ही क्या है?
बुनियादी तौर पर यह भी स्पष्ट है कि आपराधिक मामलों की जांच पूरी तरह से जांच एजेंसी और मजिस्ट्रेट के बीच ही सीमित होती है। इसमें किसी थर्ड पार्टी की कोई आवश्यकता नहीं है। ऐसे में, तीसरा पक्ष जो भी करता है, वह हस्तक्षेप ही कहलाता है। इस मामले में शीर्ष अधिकारी का आदेश आखिरी और निर्णायक माना जाता है और वह शीर्ष अधिकारी सीबीआई निदेशक होता है। इसलिए यह समझना भी जरूरी है कि न्यायपालिका भी सीबीआई को यह नहीं कह सकती है कि ‘इस तरह से’ या ‘उस तरह से’ मामले को बंद किया जाए। हां, अदालत यह बोल सकती है कि ‘यह काम नहीं हुआ’ या ‘वह चीज करो।’ साफ है, अदालत दिशा-निर्देश देती है। लेकिन जब सीबीआई अपनी रिपोर्ट तैयार कर लेती है, तब किसी भी कानून या विधान के तहत इसमें बदलाव के लिए संस्था पर दबाव नहीं डाला जा सकता। इस स्तर पर राजनीतिक व्यवस्था में गड़बड़ी दिखती है, इसलिए मौजूदा संदर्भ में सोच में यह स्पष्टता बेहद आवश्यक है। वैसे भी दंड प्रक्रिया संहिता की धारा-36 में सर्वोच्च शक्ति शीर्ष अधिकारी को ही दी गई है।कानूनी तौर पर सीबीआई के क्षेत्र में सरकार की भूमिका चार जगहों पर होती है। पहली, सीआरपीसी-24 के तहत वकील की नियुक्ति। जैसे, कोल ब्लॉक आवंटन मामले में ही यह दिखा कि महाधिवक्ता ने सरकार का पक्ष लिया, न कि सीबीआई का, क्योंकि वह सरकार द्वारा नियुक्त हैं। इसलिए इस प्रावधान को बदलने की आवश्यकता है। वकील की नियुक्ति का अधिकार सीबीआई को मिलना चाहिए, अन्यथा यह संस्था स्वायत्तता की दिशा में नहीं बढ़ सकती। वैसे, यह मुद्दा संसदीय समिति में भी उठाया जा चुका है।
कुंद हैं दांत
सीबीआई के पास जांच संबंधी शक्तियां पूरी हैं, पर कानूनी शक्तियां सीमित हैं। दूसरी, सीआरपीसी 377-378 के तहत अपील फाइल करने का अधिकार सरकार के पास है। ऐसे में, सीबीआई से जुड़े मुकदमो में अगर किसी मंत्री या नेता की रिहाई या दोष-मुक्ति होती है, तो सीबीआई के हाथ में अपील करने का अधिकार नहीं रहता। हालांकि, इस स्थिति में सीबीआई कानून मंत्रालय से अपील दायर करने की बात कह सकती है, मगर मंत्रालय मना कर दे, तो मामला वहीं खत्म हो जाता है। तीसरी, डीएसपीई ऐक्ट में ‘6-ए ’शामिल किया गया है, जिसके तहत ज्वॉइंट सेक्रेटरी या इससे ऊपर के अधिकारियों के विरुद्ध जांच के लिए सरकार से अनुमति अनिवार्य है। इस प्रावधान से सबसे ज्यादा गड़बड़ियां होती हैं। जो ज्वॉइंट सेक्रेटरी मंत्रालय में काम कर रहा हो, क्या उसके खिलाफ जांच के लिए अनुमति मिल सकती है? जवाब है- नहीं। इसका सीधा-सा मतलब यह है कि ज्वॉइंट सेक्रेटरी और उससे ऊपर के अधिकारियों को सीबीआई छू भी नहीं सकती। ऐसे में, सीबीआई की स्वाधीनता कहां रह जाती है? चूंकि कोयला ब्लॉक आवंटन मामले में सुप्रीम कोर्ट का आदेश आया है, इसलिए ऊपर के स्तर पर हड़कंप मचा हुआ है। अगर सीबीआई अपने स्तर से ऐसा करने की कोशिश करती, तो मामला कहीं भी लटका दिया जाता। साथ ही, प्रिवेंशन ऑफ करप्शन ऐक्ट- 90 में यह साफ होता है कि चाजर्शीट फाइल करने से पहले भी सरकार से अनुमति ली जानी चाहिए। अधिकतर मामलों में यह अनुमति मिलती ही नहीं। इसके अलावा, सीआरपीसी ऐक्ट-197 से, जो सिविल सर्वेट की सुरक्षा के लिए है, भी दिक्कतें आती हैं। सरकार अगर ये चारों दायित्व सीबीआई को नहीं दे सकती, तो इसे सीवीसी या लोकपाल को दिया जाए। सरकार के पास इनके रहने से हस्तक्षेप होंगे ही।
सीबीआई के वित्तीय और प्रशासनिक पहलू से जुड़ा हर मसला सरकार द्वारा नियंत्रित होता है। एक सरकारी विभाग में सब कुछ संबंधित मंत्री के प्रयोजन से जुड़ा होता है- यहां तक कि बजट, यात्रा खर्च, भत्ता, अनुदान, नियुक्ति, पदोन्नति और तबादले। अगर एक विभाग या अधिकारी सरकार की बातों पर कान न दे, तो यह सब कुछ बंद हो सकता है। कितने दिनों तक अधिकारियों को यात्रा भत्ता नहीं मिलता। इसलिए सीबीआई को कैग, सीवीसी और चुनाव आयोग की तरह स्वायत्त संगठन का दर्जा दिया जाना चाहिए। बेशक, संस्था की वित्तीय व्यवस्था ऑडिट का विषय बने, यह कैग का सब्जेक्ट हो, या कोई और रास्ता अपनाया जाए, परंतु सीबीआई का अपना बजट जरूरी है।
प्रशासनिक स्तर पर तबादले, पोस्टिंग, इंडक्शन अब सीवीसी द्वारा गठित बोर्ड के जरिये हो रहे हैं। मेरी राय में यह काम सीवीसी के जरिये ही चलता रहे, लेकिन इसमें जो राजनीतिक दखल है, उसे खत्म करने की आवश्यकता है। प्रशासनिक, वित्तीय और कानूनी स्तरों पर संशोधन कर एक बेहतर सीबीआई ऐक्ट बनाया जाना चाहिए, जो इस संस्था को स्वायत्त प्रकृति दे, इसकी विश्वसनीयता और निरपेक्षता बहाल करे। साथ ही, इस संस्था से जुड़ी सभी शक्तियां, जो फिलहाल सरकार के पास हैं, सीवीसी को हस्तांतरित की जानी चाहिए। इसी में इस संस्था और व्यवस्था का हित निहित है।
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