इर्शादुल हक, सम्पादक नौकरशाही डॉट इन

जनता परिवार के महाविलय से निश्चित तौर पर सेक्युलर शक्ति मजबूत होगी पर आपने कभी गौर किया कि इस विलय से मुसलमान बहुत कमजोर होंगे. आखिर कैसे? फिर क्या करें मुसलमान?indian-muslims-in-2014-elections

नरेंद्र मोदी की सुनामी ने जिस तर पिछले लोकसभा चुनाव में सेक्युलरिज्म और समाजवादी शक्तियों के परखच्चे उड़ा दिये उसके बाद उत्तर प्रदेश, बिहार और हरियाणा की समाजवादी सेक्युलर शक्तियों का एक होकर एक पार्टी बनाने की घोषणा अपने अस्तित्व की रक्षा का वाहिद रास्ता बचा था.लालू, मुलायम, शरद, नीतीश ने मिल कर एक पार्टी के गठन की घोषणा करके सेक्युलर शक्तियों में नयी जान डालने की कोशिश की है और इसका मनोवैज्ञानिक असर भाजपा मुखालिफ समूहों में बखूबी दिखने भी लगा है. भारतीय जनता पार्टी भले ही अपने बयानों में इस विलय को प्रभावहीन कहती रहे लेकिन हकीकत यह है कि आगामी बिहार असेम्बली चुनाव, उसके लिए गंभीर चुनौतियां ले कर आ रहा है.

 सबसे बड़ा वोटर समूह

एक आसान गणित तो यह संदेश दे ही गया है कि लोकसभा चुनाव में फजीहत की हद तक हार का स्वाद चखने वाले जद यू और राजद को क्रमश: 16.8  और 29.8 प्रतिशत वोट मिले थे जिसका कुल योग 46 प्रतिशत के करीब है. जबकि बिहार की 31 लोकसभा सीट जीतने वाली भाजपा को महज 38 प्रतिशत वोट मिले थे. यह याद रखने की बात है कि राजद-जद यू और कांग्रेस के वोट में सामुदायिक रूप से सबसे बड़ी भागीदारी अगर किसी की थी तो वे मुसलमान थे. सरकारी आंकड़ों के अनुसार बिहार में मुसलमानों की आबादी 16.5 प्रतिशत है. इस प्रकार वोटिंग शक्ति के लिहाज से मुसलमान बिहार की सबसे बड़ी शक्ति हैं.अनुसूचित जाति और यादव समाज भी मुसलमानों के बाद आते हैं.

 

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पर सवाल है कि नये जनता परिवार में नेतृत्व के स्तर पर मुसलमान कहा हैं? यह विडंबना है कि इस विलय के बावजूद बिहार में कोई ऐसा मुस्लिम चेहरा नहीं जिसका मुस्लिम समाज के लिए मास अपील हो. कोई ऐसा नेता नहीं जो लालू-नीतीश को यह आभास दे सके कि जनता परिवार की जीत सुनिश्चित करने में मुसलमानों की सबसे बड़ी भागीदारी होने वाली है, लिहाजा उनकी आबादी के अनुसार चुनाव में उन्हें टिकट दिया जाये. 16.5 प्रतिशत की आबादी के लिहाज से बिहार की 243 असेम्बली सीटों पर मुसलमानों की स्वाभाविक दावेदारी 40 सीटों पर बनती है. इनमें 25-30 सीटों पर तो पसमांदा मुसलमानों का हक बनता है. पर क्या लालू-नीतीश की जोड़ी 40 मुसलमानों को टिकट देगी? समय जब टिकट बंटवारे का आगा तो याद रखिये बिहार का सबसे बड़ा यह वोटर वर्ग हाशिये पर होगा. अब्दुल बारी सिद्दीकी जैसे राजद के कद्दावर नेता की जुबान में यह ताकत नहीं दिखेगी कि वह लालू-नतीश से इस बारे में कोई सवाल कर सकें. आखिर क्यों. आइए समझते हैं.

 मॉइनारिटी फियर

अन्य प्रदेशों की तरह बिहार के मुसलमान भी माइनोरिटी फियर यानी अल्पसंख्यक होने के खौफ से ग्रसित हैं. उन्हें साम्प्रदायिक शक्तियों से असुरक्षित होने का एहसास है. और असुरक्षित महसूस करने वाला इंसान या समाज खुद को बेसहारा समझता है. वह अपनी सुरक्षा की उम्मीद लिये हर उस दरवाजे पर जाता है जो उसे अपने दुश्मन से बचा सके. ऐसे में मुसलमानों को लगता है कि इस खौफ और खतरे से उन्हें लालू और नीतीश ही निजात दिला सकते हैं. मुस्लिम समुदाय की बेबसी की यही फीलिंग्स लालू-नीतीश को विराट नेता बना देने के लिए ईंन मुहैया करते हैं. लालू-नीतीश के लिए, मुसलमानों का बेबसी भरा यही एहसास उन्हें गदगद कर देता है. मुसलमानों का यही एहसास, किसी मुस्लिम चेहरे में नेता तलाशने नहीं देता. नतीजतन वे लालू-नीतीश को अपना रक्षक समझ बैठते हैं.

मजबूर को भीख मिलती है, हक नहीं

गौर करो मुसलमानों कि आगामी बिहर असेम्बली चुनाव में तुम अपने वोटिंग हक का प्रयोग कितनी बेबसी में करने जा रहे हो. तुम्हारे पास जनता परिवार या उससे जुड़े गठबंन को वोट करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है. तुम मजबूर हो. जो कौम या जो व्यक्ति मजबूर होता है उसे भीख ही मिल सकती है, हक या हिस्सा नहीं.

आप के अरविंद केजरीवाल ने दिखाया कि भाजपा को हराने की मुसलमानों की बेचैनी को कैसे भुनाया जा सकता है. उन्होंने टिकट मांगने वाले मुसलमानों को दो टूक कह दिया कि भाजपा को हराना मकसद है तो मुसलमान मजबूरन वोट देंगे ही और उन्होंने मुसलमानों के हार जाने का भय दिखा कर टिकट तक नहीं दिया

गौर करने की बात यह भी है कि लालू प्रसाद की जाति के लोगों ने लोकसभा चुनाव में लालू को नकार दिया. कई पिछड़ी जातियों ने नीतीश को नकार दिया. लेकिन यह मुसलमान ही हैं जिन्होंने 1990 से 2005 तक लालू को सहारा दिया और 2005 से 2010 तक नीतीश को सहारा दिया. और अबकी बार यानी 2015 में वह लालू-नतीश के जनता परिवार के संग होंगे. जबकि पाटलिपुत्र की सरजमीन पर यादवों ने पिछले लोक सभा चुनाव में लालू प्रसाद की बेटी मीसा भारती को ठुकरा दिया और भाजपा के रामकृपाल यादव को गले लगा लिया. मुसलमानों के इस वोटिंग पैटर्न से यह बार बार साबित हुआ है कि मुसलमान बतौर वोटर मजबूर हैं, विकल्पहीन हैं. अगर किसी चुनाव में एक वोटर मजबूर और विक्लपहीन है तो कमजोरी की इससे बड़ी मिसाल और क्या हो सकती है?

जनता परिवार के विलय से यकीनन सेक्युलरिज्म मजबूत होगा, यह सच है. पर यह भी सच है कि मुसलमान कमजोर होंगे. ऐसे में सवाल यह है कि मुसलमान करें तो क्या करें?

 यह है रास्ता

लालू-नीतीश को साने के लिए, उनसे अपनी आबादी के अनुपात में टिकट लेने के लिए, सत्ता में भागीदारी के लिए एक सशक्त आवाज उठाने की जरूरत है. सेक्युलरिज्म और समाजवाद को बचाये रखने और मजबूत करने की जिम्मेदारी सिर्फ मुसलमानों की नहीं है. यह जिम्मेदारी हर उस व्यक्ति की है जो सामंतवाद और साम्प्रदायिकता से निपटना चाहता है. ऐसे में मुसलमानों को नीतीश और लालू के पास जाकर गिड़गिड़ाने के बजाये उन्हें यह एहसास कराने की जरूरत है कि आगामी असेम्बली चुनाव में उनकी जीत मुसलमानों के बिना सुनिश्चित नहीं हो सकती. इसलिए वे मुसलमानों के संग इंसाफ से पेश आयें. लोकतंत्र की मजबूती इसी में संभव है कि नेता मजबूर हो, जनता नहीं. इसलिए मुसलमानों को यह तय करना होगा कि वे खुद को मजबूर  समझने के बजाये नेताओं को मजबूरी का एहसास करायें और जनता परिवार के रूप में जो नयी पार्टी वजूद में आ रही है उसमें अपनी दावेदारी को मजबूत करें. इसके लिए उन्हें अपने नेतृत्व क्षमता पर भरोसा जगाना होगा. रास्ता यह भी है कि अगर लालू-नतीश मुसलमानों को उनकी राजनीतिक भागीदारी नहीं देते, या देने में आनाकानी करते हैं तो वह अपने लोकतांत्रिक अधिकार का प्रयोग करते हुए खुद ही चुनावी मैदान में कूद पड़ें. साहस तो दिखाना होगा.

By Editor

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