एक प्रचलित शब्द है मृगमरीचिका। आप अगर चितकोहरा से बेली रोड की ओर आ रहे हैं तो मृगमरीचिका के शिकार हो सकते हैं। राजभवन के पास बना है एक पियाऊ। उसके ऊपर बैनर भी लगा है। स्वच्छ व शुद्ध पेयजल। आज हम भी चकमा खा गए।
वीरेंद्र यादव
जेठ की दोपहरी में प्यास लग जाए तो मौसम को दोष नहीं दिया जा सकता है। अगर राजभवन के पियाऊ में पानी नहीं मिले तो दोष राज्यपाल को नहीं दिया जा सकता है। दोपहर का समय था। पियाऊ देखकर हम भी रुके। तेजी से पियाऊ की ओर बढ़े। लेकिन पियाऊ में पानी की जगह सिर्फ बालू से गर्दन तक ढका हुआ घइला (घड़ा) था। एक गंदा सा गिलास था और एक गिलास रस्सी सहारे घड़ा में डाला हुआ था। घड़ा के मुंह पर ढक्कन भी रखा हुआ है। बालू भी सूखा हुआ था। घड़ा की गर्दन भी ठनठना।
घर-घर तक जल पहुंचाने का संकल्प लेने वाले मुख्यमंत्री के सरकारी आवास के पास के पियाऊ में पानी नहीं पहुंच रहा है। बड़ा सा बैनर और सूखा घड़ा जरूर पानी का भ्रम पैदा कर रहा है। यदि राजभवन प्रशासन के पास घड़ा में पानी भरने की व्यवस्था नहीं है तो कम से कम बैनर तो हटा ही देना चाहिए, घड़़ा भले ही नहीं हटे। क्योंकि जितना बड़ा घड़ा है, उसकी ऊंचाई कम से कम दो फीट होगी। घड़ा की गर्दन तक बालू से भर दिया गया है। इसका मकसद पानी को ठंडा रखना होगा। लेकिन जब पानी ही नहीं है तो सब बेकार।