कल तक जिन्हें समाज का प्रभावशाली वर्ग जिन्हें गूंगा समझता था आज वही वर्ग सोशल मीडिया पर सशक्त आवाज बन कर उभरा है. जिससे उस प्रभावशाली वर्ग और मुख्यधारा के मीडिया को खतरा महसूस होने लगा है.
सूर्यकांत यादव
सोशल मीडिया आज सामाजिक और राजनीतिक क्रांति का पर्याय बन चुका है । यह वह प्लेटफॉर्म है जहाँ से उन मिथकों को चुनौती दी जा रही है , जिसके सहारे पहले जीवन सिद्धान्त बना दिए जाते थे । आज 10 रूपये के मोबाईल रिचार्ज से उन लोगो से मुकाबला किया जा रहा है जो करोडो – अरबों के प्रोजेक्ट लगाया करते है । कुछ विशेष लोगों को यहाँ लिख रहे लाखों लोगों की मजलूम आवाज पसन्द नहीं है । उन्हें भय इस बात का है कि कल तक गूंगे रहे लोगों को कैसा प्लेटफॉर्म मिल गया है जो हमारे वजूद को चुनौती देने लगे हैं । कुछ संपादक और तथाकथित लेखक/लेखिका फेसबुक पर लिखने वालों को टिटहरी की संज्ञा देते हैं । टिटहरी एक पक्षी का नाम है जो टी टी टी करती रहती है ।
ऐसे तथाकथित लेखक/लेखिका के अनुसार ये 10 रूपये के रिचार्ज वाले वही टिटहरी है ।
ये जो तथाकथित मठाधीस हैं। पत्रकारिता जगत के अब उनकी सत्ता हिलने लगी है और लोगों ने अपनी आवाज को पहचानना शुरू कर दिया है। क्रांतिकारी कवि मुक्तिबोध ने भी लिखा था “गढ़े मठों को तोड़ेंगे / इतिहास की धारा मोड़ेंगे” इस संघर्ष की शुरुवात हो चुकी है। लेकिन सवाल यह है कि इन तथाकथित लेखकों/लेखिकाओं को डर किस बात का है ? वो भय क्यों कर रहे है ? भला टिटहरीयो से डर कैसा ? तो साथियों ये डर है उनके वजूद के मिटने का ? ये डर है कि जो कल तक सेमिनारों और सम्मेलनों में शान बुखारते मिलते थे आज उन्हें भाव क्यों नहीं मिल रहा है ?
आखिर उनकी किताब क्यों नहीं बिक रही है ? उनकी टीआरपी क्यों कम हो रही है ? उनका यह भय जारी रहना चाहिए । उनके कहने और किसी फालतूु उपमे देने मात्र से हमें घबराना नहीं है । हमें निरन्तर आगे बढ़ते जाना है । लिखते जाना है । अब तक जितनी किताबें वेद पुराणों और लंबे – चौड़े लेखकों द्वारा सम्पादित है उतने अंक आज सोशल मीडिया पर हर घण्टे में छाप दिए जाते हैं । यह कोई मामूली बात नहीं है ।
जनसामान्य का बढ़ता वर्चस्व
यहाँ सोशल मीडिया पर जो भीड़ है वह जनसामान्य के भीड़ है । यह मजलूमो की भीड़ है । यह लाचारों की भीड़ है । इसके अपने वजूद है। जिन्हें कल तक लिखने पढ़ने से मना किया जाता था वे आज स्वतंत्र पत्रकार बन चुके है । जी हाँ सोशल मीडिया पर आज करोड़ो पत्रकार हैं । और इन करोड़ो लोगों की खबर में विश्वश्नियता है क्योंकि ये खबरों को स्वयं जीते है । ये खबर बिकाऊ नहीं है । लाजिमी है कि उन्हें ऐसे करोड़ो निर्भीक पत्रकारों से डर होगा । उन्हें डरना भी चाहिए । आज वे अपने नेटवर्क और धन बल के सहारे सोशल मीडिया के कुछ साथियों पर लगाम लगाना चाहते है ।
बोलने की आजादी पर पहरा
इस कड़ी में इलाहाबाद से ताल्लुक़ रखने वाले स्वतंत्र लेखक एवं विचारक मोहम्मद अनस ,समाजवादी लेखक सत्या सिंह, स्वतंत्र विचारक सुनील यादव, निर्भीक विचारक मोहम्मद जाहिद, अली सोहराब, प्रवीण काम्बले, विराट जी, आशा किरण, निलोत्प्ल दास जैसे सैकड़ो साथियों को समय समय पर लिखने से रोक दिया गया । लेकिन इससे क्या होगा ? ये विराट जीवट वाले है, ये रुकने वाले नहीं है । अगर इन्हें रुकना होता तो बहुत पहले रुक गए होते । लेकिन ये चल रहे है । ये बढ़ रहे है आगे । ये नई नई आईडी से पुनः आएंगे । आये भी है । रुकना थोड़े न है ।
2014 के लोकसभा चुनाव पर हम नजर डालें तो इंटरनेट का जमकर गलत इस्तेमाल हुआ । गलत अफवाहें, गलत सूचनाओं को जमकर प्रचारित किया गया । निजी हमलों की बाढ़ सी आ गई और इसका फायदा फेसबुक और ट्विटर ने अपने मार्केटिंग के लिए उठाया । फेसबुक जैसे सोशल मीडिया अपने हिसाब से फेक आईडी को ब्लॉक करने का काम करती हैं । 2014 के चुनाव के दौरान अनगिनत फेक आईडी बनाई गई जिसे फेसबुक ने खुद की कमाई के साधन के रूप में लिया । किसी गलत या फेक आईडी के बारे में फेसबुक को इन्फॉर्म करने पे उस पर वह त्वरित कारवाई नहीं करता । हमसे कुछ सवाल पूछता है । वह हमें दिखना बंद हो जाता है , मगर क्या इसका यही समाधान है? इन गलत आईडी के सहारे ही हमारे उपरोक्त साथियों के आईडी ब्लॉक करवाई गई । साथियो यह सिर्फ निंदा का विषय नहीं है । चूंकि इसके एवज में कोई कानून नहीं है अतः हम सब कुछ कर नहीं सकते । लेकिन लिखित विरोध तो कर ही सकते है ।