महागठबंधन की कढ़ाई में राजद व जद यू अपन-अपनी तरह से आंच लगा रहे हैं लेकिन मीडिया का एक  वर्ग अपनी इच्छानुसार मसाला डाल कर स्वाद बता रहा है कि गठबंधन अब टूटा कि तब टूटा, पर सियासत  में हथियार चमकाना और हथियार चलाना अलग बाते हैं, गठबंधन सलामत भी रहेगा और हथियार चमका कर भविष्य सरक्षित करने की मशक्कत चलती भी रहेगी – नौकरशाही डॉट कॉम के ए़डिटर इर्शादुल हक का विश्लेषण

 

बात यहां तक सही है कि महागठबंधन की कढ़ाई में लगने वाली आंच की लौ और उसकी तपिश से गरमी बढ़ी हुई है. लेकिन यह गर्मी क्या सचमुच उतनी ही है जितनी मीडिया का एक वर्ग, जिसे तेजस्वी संघी मीडिया कहते हैं, अपने तीखे मसाले लगा कर स्वाद को परिभाषित कर रहा है?  मीडिया का एक वर्ग यह ऐलान कर रहा है कि गठबंधन अब टूटा कि तब टूटा. इतना ही नहीं गठबंधन टूटने के बाद नीतीश कुमार के समक्ष क्या शानदार विकल्प ( भाजपा) है, वह भी लोगों को समझाया जा रहा है. वैसे याद रखने की बात है कि पिछले डेढ़ वर्ष में, जब से राजद-जदयू-कांग्रेस ने सत्ता संभाली है तब से अब तक मीडिया के इसी वर्ग ने छह बार गठबंधन टूटने का फरमान जारी कर दिया, पर सरकार बखूबी चलती रही है.

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ऐसे में सवाल यह है कि इस बार का जो घटनाक्रम है उसमें क्या होगा. इस सवाल का जवाब जानने के लिए उन विकल्पों पर, जिसे मीडिया नीतीश कुमार को सुझा रहा है, गौर करने की जरूरत है. इस काल्पनिक सवाल पर गौर करें कि नीतीश , राजद से अलग हो जाते हैं तब की स्थिति क्या होगी. भाजपा ने ऐलान कर रखा है कि वह नीतीश को बाहर से समर्थन करेगी. बाहर से समर्थन का मतलब नीतीश बखूबी समझते हैं. ऐसी हालत में नीतीश भाजपा के रहमो करम पर होंगे. एकदम कमजोर मुख्यमंत्री. तो क्या नीतीश यह चाहेंगे कि वह एक सशक्त मुख्यमंत्री होने के विकल्प को छोड़ कर उसी भाजपा से हाथ मिला लें जो उनके मातहत सात वर्षों तक सरकार में रही है? नीतीश इतने कच्चे खिलाड़ी नहीं हैं. अगर मीडिया का एक वर्ग बिन मांगे जो सुझाव दे रहा है, उसे न तो जनता स्वीकार कर रही है और न ही नीतीश करेंगे.

हथियार चमकाने और चलाने का फर्क

इस संदर्भ में दूसरा सवाल यह है कि फिर नीतीश कुमार राजद के साथ इतनी तल्खी क्यों बनाये रखना चाहते हैं.इस सवाल का जवाब जरा पेचीदा है. सियासी पार्टियां हर मुद्दे को सियासत के चश्मे से देखती हैं. सत्ता की राजनीति में हर तरह के हथियार अपनाये जाते हैं. कुछ हथियार चलाये जाते हैं तो कुछ चमकाये जाते हैं. गठबंधन की मौजूदा राजनीति हथियार चलाने से ज्यादा हथियार चमकाने की हो रही है. हथियार चमकाने का सबसे बड़ा फायदा यह है कि सामने वाला पस्त रहे. नीतीश कुमार राजद को पस्त बनाये रखने की सियासत कर रहे हैं. राजनीति की गहरी जानकारी रखने वाले सत्य नारायण मदन कहते हैं कि मौजूदा राजनीति में भ्रष्टाचार का मुद्दा हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है. वह कहते हैं भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग राजनीति की आदर्श स्थिति है जबकि व्यावहारिक राजनीति ऐसे नहीं चलती क्योंकि देश की जनता यह जानती है कि बिरले ही कोई भ्रष्टाचार-अपराध के मुद्दे पर आदर्शवादी लकीर पर रह के राजनीति कर पाता है.

भ्रष्टाचार मु्द्दा है या सियासी हथियार

 

अब सवाल यह है कि नीतीश कुमार आखिर चाहते क्या हैं. इस सवाल के जवाब को समझने के लिए इस बात पर गौर करना होगा कि नीतीश फिलवक्त अगले साढे तीन वर्ष तक निश्चिंत रूप से मुख्यमंत्री हैं, फिर वह अनिश्चितता की तरफ क्यों अग्रसर होंगे. दर असल नीतीश 2020 तक की अपनी भूमिका के लिए राजनीति का हथियार नहीं चमका रहे, वह 2019 और 2020( लोक सभा व बिहार विधानसभा चुनाव) के बाद की अपनी भूमिका को मजबूत बनाने में जुटे हैं. वह एक दूरदर्शी राजनेता हैं जो अपने वर्तमान के साथ साथ भविष्य का रास्ता भी बनाये रखना चाहते हैं. उनके चमकते हथियार का असर ही है कि राष्ट्रपति चुनाव में वह एनडीए उम्मीदवार के समर्थन में आ गये तो उपराष्ट्रपति के चुनाव में उनकी इच्छा से महात्मा गांधी के वंशज को उपराष्ट्रपति के उम्मीदवार कांग्रेस ने बना दिया. नीतीश अपनी उपयोगिता हर हाल में बनाये रखने के हुनर को बखूबी जानते हैं.

By Editor


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